Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 39
________________ अङ्क ७-८] स्वदेश-सन्देश। (४) मत इसकी परवाह करो क्या कौन कहेगा; तथा सहायक कौन, हमारे संग रहेगा। क्या चिन्ता तुम हो वही, जिसकी शक्ति अनन्त; जिसका आदि मिला नहीं, और न होगा अन्त । अटल सिद्धान्त है ॥ यद्यपि कुछ कुछ लोग, मार्ग रोकेंगे आकर; किन्तु शीघ्र ही भाग जायँगे धक्के खाकर। यदपि मिलेंगे मार्गमें, तुमको कितने शूल; पग रखते बन जायँगे, वे सबके सब फूल। यही आश्चर्य है। युद्ध स्वार्थ अथवा असत्यसे करना होगा; जीनेही के लिए, तुम्हें अब मरना होगा। तब न मरे अब ही मरे, मरना निस्सन्देह; अब न मरे सब कुछ रहे, रहे न केवल देह। देह-ममता तजो॥ सुनो सुनो जो आज, कहीं साहस तुम हारे; डूबोगे यों, नहीं लगोगे कभी किनारे। तन मन धनसे देश-हित, करो प्रमाद विसार; सबके सँग मिलकर सहो, भूख-प्यास या मार। पुनः आनन्द भी॥ पिछड़ गए हो बहुत, लड़ रहे हो आपसमें; पकड़ पकड़ रूढ़ियाँ, घोलते हो विष रसमें । ऐसा ही करते रहे, तो विनाश है पास; बस भविष्यमें देयगा, तव-परिचय इतिहास। एक मृत-जाति कह ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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