Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 28
________________ २१२ जैनहितैषी [भाग १४ जड़को उखाड़ डालनके लिए लगा रक्खी कि यह उसीके बहकानेमें भूल कर, उसके दिये जिसके ऊपर प्रतिष्ठालाभ करके मनुष्य अपने हुए कुपथ्यका सेवन करके ठगा गया है । महत्त्वको अव्याहत बनाये आ रहा है और यह ठीक है कि ज्ञानसे दुःखकी उत्पति अबतक प्रकृतिके निष्ठुर कवलसे अपनी रक्षा हुई है; परन्तु उस दुःखबन्धनसे छूटनके लिए कर सका है। ज्ञानके प्रकाशको छोड़कर अज्ञानके अन्ध- इस विश्वासके कारण मनुष्य बहुत युगोंतक कारमें प्रवेश करना होगा, इस प्रकारकी आज्ञा ठगा गया है कि जब ज्ञानसे दुःखकी उत्पत्तिः माननेके लिए तो कोई भी सुस्थ और मोहहुई है तब ज्ञानका पथ रुद्ध कर देनेसे ही उस मुक्त मनुष्य सिरं झुकाकर तैयार न होगा। दुःखसे छुटकारा हो जायगा । जिन लोगोंने यह बड़े ही सौभाग्यकी बात है कि सब इस तरह अपनेको ठगाया है, वे पुकार पुकार देशोंकी सभी जातियोंने इस बातको स्वीकार कर कहते आ रहे हैं कि यदि दुःखसे मुक्त होना नहीं किया कि ज्ञानके मार्गको छोड़कर दुःख- . चाहते हो तो ज्ञानमार्गको छोड़कर अन्धवि- नाशके उपायका अवलम्बन किया जाय । श्वासके मार्गका अवलम्बन करो, यदि तुम्हारी कमसे कम एक बड़े भारी समाजमें* यह मत इच्छा परमपुरुषार्थ प्राप्त करनेकी है तो बुद्धि- ग्रहण किया गया है कि अपूर्ण ज्ञानसे जिसकी वृत्तिका निरोध करो, ज्ञानके अन्वेषणमें व्यर्थ उत्पत्ति होती है, ज्ञानका पूर्ण विकास होना समय मत खोओ; जविनके मार्गपर व्यक्तिविशेष ही उसके नाशका एक मात्र उपाय है। + और वाक्यविशेषमें x विश्वास स्थापन करके, ' परन्तु, ज्ञानकी पूर्णता होने पर वास्तवमें चलनेसे ही परमपुरुषार्थ प्राप्त होगा। दुःखकी निवृत्ति होना सम्भवपर है या नहीं, वास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यके समान इसकी आतोचना अवश्य कर देखनी चाहिए । अभागा जीव संसारमें शायद ही कोई हो। जहाँ तक देखा जाता है, जान तो यही पड़ता मनुष्य क्षुद्र और दुर्बल है; और सदासे चले ल है कि ज्ञानके विकाशके साथ साथ दुःखकी की आये नियमके अनुसार जो क्षुद्र है वह अभागा है और जो दुर्बल है वह दीन है । वह अपनी देने की चेष्टायें अनेक प्रकारसे की गई हैं। मात्रा भी बढ़ती जाती है । इस प्रश्नका उत्सर असमर्थताके कारण दूसरोंके आगे कृपा-भिक्षाके लिए सदासे लालायित है और अपनी पर- कोई कोई तो पृथिवीमें दुःखका अस्तित्व ही मुखापेक्षिता (पराया मुंहताकनेकी आदत के नहीं स्वीकार करना चाहते, मंगल (ईश्वर ) फलसे सदासे प्रतारित ( ठमाया हुआ) है। के राज्यमें अमंगलका आस्तित्व स्वीकार करनेमें मनुष्य प्रकृत्तिके द्वारा तरह तरहसे पीडित उन्हें संकोच होता है । किन्तु मनुष्यकी अनुहोकर दुःखकी यंत्रणासे ' हाय हाय' करता भूतिका तीवतम और मुख्यतम विषय दु:ख ही आ रहा है, इस लिए जब जब जिस किसी है। इसके अस्तित्वमें सन्देह करनेसे काम नहीं व्यक्तिने अपनी मर्खता और निर्लज्जताके भरोसे चल सकता । यहूदी ‘जेकब' से लेकर हिन्दू अपनेको इस सनातन दुःखरोगका एक मात्र ‘रामप्रसाद' तक सबने ही एक स्वरसे इसे चिकित्सिक (वैद्य ) प्रकट किया तब तब मान लिया है। पृथिवीपर अवतीणे होते ही मनु + ईसा या मुहम्मद आदि धर्मप्रवर्तक । * भारतवर्षके ब्राह्मण, जैन, बौद्ध आदि संप्र.xबाइबल या कुरान आदि धर्मग्रन्थ । दायोंमें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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