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जैनहितैषी -
एक तरहकी व्याख्या और भी हैं । दुःखकी परिणति परम सुख है। यदि दुःखका अभाव होता तो सुखानुभूति बाधा पड़ती, इस लिए अन्त तक सुखकी मात्रा बढ़ाने के लिए ही इस दुःखकी सृष्टि हुई है । अर्थात् अन्तमें परम सुखदान ही दुःखसृष्टिका उद्देश्य है ।
- आजकल जो लोग अभिव्यक्तिवाद (विकाशवाद या उत्क्रान्तिवाद ) की नीव पर दार्शनिक तत्त्वोंकी आलोचना करने बैठते हैं, वे भी इस प्रकारकी एक बात कह कर मानवजातिको आश्वस्त करने या ढाढस बँधानेकी चेष्टा किया करते हैं । अभिव्यक्तिवादका एक और नाम क्रमोन्नति है । अभिव्यक्तिके फलसे सुखकी उन्नति और दुःखका ह्रास क्रम क्रमसे होता जायगा । किन्तु जब मृत्युके समान महादुःखजनक व्यापार प्रत्येक मनुष्यके और सारे मानव कुलके सन्मुख हर समय उपस्थित रहता है और उस मृत्यु के साथ अविराम युद्ध करना ही जीवोंका जीवन है, एवं मृत्युसे बचनेकी चेष्टा में ही जीवकी क्रमोन्नति या अभिव्यक्ति है, परन्तु मृत्यु के हाथसे बचनेका कोई भी उपाय अब तक कोई भी जीव आविष्कार नहीं कर सका है, तब, अभिव्यक्तिका यह परिणाम देखते हुए, इस प्रकारसे, दुःखके अपलाप करने की चेष्टा निष्फल ही प्रतीत होती है । फलतः जिस तरह यह सच है कि दुःख के साथ सुख आता है, अविमिश्र दुःख जगतमें नहीं है, उसी तरह यह भी सच है कि सुखके साथ दु:ख आता है, अविमिश्र सुख जगत में नहीं है । इसमें सन्देह करनेसे सत्यका अपलाप होता है ।
ज्ञानकी वृद्धि दुःख नाश करनेका प्रयास मात्र है, बस यहीं तक निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है; किन्तु यह बात नहीं कही
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[ भाग १४
जा सकती कि ज्ञानकी वृद्धिसे दुःखका ह्रास होकर सुखका परिणाम बढ़ेगा ।
इस बातकी यथार्थता के सम्बन्ध में चारों ओरसे संशय आकर उपस्थित हो जाते हैं कि ज्ञानकी पूर्णता होने पर दुःखसे छुटकारा हो जायगा । आश्चर्य नहीं जो मनुष्यजातिका पूर्वोक्त समाज ( ईसाई आदि धर्मोका माननेवाला ) इसी कारण से ज्ञानका मार्ग छोड़कर अतिशय निरुपाय होकर विश्वासका मार्ग अवलम्बन करनेका उपदेश देता हो। तुम कहते हो कि ज्ञानवृद्धि के साथ साथ दुःखकी उत्पत्ति हुई है और ज्ञानवृद्धि के साथ साथ उसकी मात्रा बढ़ती जाती है । ऐसी दशा में यह कैसे माना जा सकता है कि ज्ञानकी पूर्णता होने पर दुःखका नाश हो जायगा ?
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इस प्रश्नका कोई संगत उत्तर है या नहीं, यह तो हम नहीं जानते; परंतु एक इस प्रकारका उत्तर देने की चेष्टा की गई है:
तुम जिसे ज्ञान कहते हो वह जगत के सम्पकैसे ज्ञान है । इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस ज्ञानके न रहने पर भी जगत् रहेगा । उस तथाकथित ज्ञानके अभाव में यदि जगतका अभाव माना जाय, तो फिर उस जगतके साथ उस ज्ञानका एक अविच्छेद्ध सम्बन्ध खड़ा हो जाता है; एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं रहता । ज्ञानसे ही इस सुखदुःखमय जगतकी उत्पत्ति हुई है । इस जगतकी उत्पति के साथ दुःखकी उत्पत्ति और सुखकी उत्पत्ति हुई है । सुख दुःख दोनों ही इस ज्ञाननामधारक भ्रान्तिसे उत्पन्न हुए हैं। दोनों ही एक तरह के विकारके फल हैं ; एक ही विक्रियाके दो बाजू हैं । एक बाजूसे देखने पर जो सुख है, दूसरी बाजूसे देखनेसे वह दु:ख है । यदि तुम विशुद्ध सुख चाहो, तो वह तुम्हें कहीं नहीं
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