Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ __ अङ्क ७-८] मुक्तिके मार्ग। २१५ मिलेगा; यदि विशुद्ध दुःख चाहो तो वह भी है। अत एव मुक्तिका अर्थ केवल दुःखसे ही कहीं नहीं मिलेगा । एक कढ़ाहा (कटाह) मुक्त होना नहीं है, वह सुखसे भी मुक्त होना एक तरफसे जैसे भीतरको फंसा हुआ और है, प्रान्तिके जालसे मुक्त होना है, और जगतके दूसरी तरफसे ऊपरको उठा हुआ होता है; बन्धनसे मुक्त होना है। इस तरह सुखदुःख‘घुसाहुआ-पन ' मिटानेसे जैसे 'उठाहुआ-पन'' विनिर्मुक्त होकर रहना यदि कल्पनीय हो, तभी चला जाता है और 'उठाहुआ-पन' मिटानेसे परम पुरुषार्थ साधित होगा। “साहुआ-पन' नहीं रहता है, और एकके एक समय भारतवर्ष में इसी प्रकारका मुक्तिमिटाने के साथ दोनोंके मिट जानेसे कढ़ाहेका तत्त्व प्रचारित हुआ था। इस मुक्तिवादने भारकटाहत्व भी नहीं रहता है, उसी प्रकार इस तवर्षके जनसमाजको गठित, नियमित और जगतके दुःखभागको लोप करनेका प्रयत्न कर- चालित किया था। अब तक भी यहाँके जननेसे सुखका भाग आप ही लोप हो जाता है, समाजकी अस्थि-मज्जाओंमें यह मत गूढभावसे सुखभागको लोप करनेसे दुःखका भाग भी लुप्त निहित रह कर उसे जीवनके पथमें प्रेरित कर हो जाता है और सुखदुःख दोनोंको लुप्त कर- रहा है। हम यह नहीं कहते कि अन्य देशोंमें नेसे सुखदुःखमय जगतका अस्तित्व नहीं रहता और अन्य समाजोंमें इस मतकी क्षीण ध्वनि है। इस जगतमें सुख भी नहीं है, और सुख- भी नहीं सुनी गई है। किन्तु अन्य देशोंमें यह दुःख भोगनेके लिए चेतन कोई नहीं है, उस मत मानवजीवनकी गतिका नियामक हुआ है, अचेतन जगतका अस्तित्व अकल्पनीय है। या मनुष्यके गन्तव्य मार्गमें इसने कोई विशेष ज्ञान नामक परिचित भ्रान्तिसे इसकी उत्पत्ति है अनुकलता उत्पन्न कर दी है, यह इतिहासमें और वह भ्रान्ति जबतक वर्तमान रहेगी तबतक नहीं लिखा । यह मत विचारसह है या नहीं, सुखदुःखपरिहारकी चेष्टा व्यर्थ है। यह पथ सपथ है या नहीं, इन बात .. ज्ञान नामसे परिचित इस भ्रान्तिका नाश करना इस लेखका आलोच्य विषय नहीं है ।* करना कुछ असाध्य नहीं है । परन्तु उसके लुप्त नाटः-यद्यपि हम इस लेखके विचारोंसे सर्वथा होने पर जिस तरह दुःख नहीं रहेगा, उसी सहमत नहीं हैं तो भी अपने पाठकोंको विभिन्न तरह सख भी नहीं रहेगा और तब यह जो विचारोंका परिचय कराने और विज्ञ पाठकोंको उनपर प्रत्यक्षगोचर सुखदुःखका आश्रय जगत् है, विचार करनेका अवसर देनेके लिये इसे प्रका. शित किये देते हैं। -सम्पादक। उसका भी अस्तित्व विलुप्त हो जायगा। ___ दुःखसे मुक्त होना मनुष्यके लिए वाञ्छनीय हो सकता है, इसमें कोई हर्ज नहीं है; परन्तु दुःखके बदले, दुःखको दूर करके उसके स्थानमें , * स्वर्गीय पं० रामेन्द्रसुन्दर त्रिवेदी एम० ए० के सुखप्रतिष्ठाकी आशा रखना बड़ी भारी मूर्खता बंगलालेखका अनुवाद । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64