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अङ्क ७-८]
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कलकत्ता जैनसभाकी आज्ञा !
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उक्त सभा निम्न लक्षणों से किसी एक लक्षणसे होते हैं क्योंकि, जैसा कि हमने ऊपर बयान लक्षित पत्रको जैनपत्र समझती है ?- किया है, ये दोनों ही पत्र जैनसमाजसे खास
१-जो केवल जैनधर्मसे सम्बंध रखता हो सम्बंध रखते हैं, उसीको लक्ष्य करके निकाले और एक मात्र उसके सिद्धान्तोंका ही प्रति- जाते हैं, जैनसमाज ही इनका ध्येय तथा पादक हो।
आराध्य है और ये बराबर उसके हित, अहित ___२-जो जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंसे अविरुद्ध
तथा उत्थानकी चिन्ता किया करते हैं । यह हो-उनका विरोध न करता हो।
दूसरी बात है कि एक व्यक्ति जिसे हित समझता
है दूसरा उसे अहित मानता हो, अथवा हित३-जिसका खास समाजसे सम्बंध हो और
साधनके उपायोंमें दोनोंके परस्पर मतभेद हो। जो प्रायः उसीके हित, अहित तथा उत्थानकी
क्योंकि ऐसा हरएक शख्स अपने अपने बुद्धिचिन्तामें निमग्न रहता हो।
वैभवके अनुसार ही समाजकी हितचिन्तना और पहले लक्षणानुसार इस समय समाजमें हितसाधनाके उपायोंकी योजना किया करता है। कोई भी पत्र विद्यमान नहीं है । अर्थात् इस चिन्तना और योजनामें भूलका होना भा ऐसा कोई भी पत्र मौजूद नहीं है जो केवल संभव है, जिसका सुधार हो सकता है । परंतु जैनधर्मके सिद्धान्तोंका ही प्रतिपादन या विवे
इतनेपरसे ही बिना किसी कलुषितहृदयता अथवा चन करनेवाला हो, और सामाजिक आदि
शत्रुताका स्पष्ट प्रमाण मिले-कोई व्यक्ति समादूसरे विषयोंसे जिसका कुछ भी सम्बंध न हो। जहितैषियोंकी पंक्तिसे बाहर नहीं हो जाता। ऐसा लक्षण करने पर ‘जैनमित्र' आदि समा- फिर नहीं मालम सभाने उक्त दोनों पत्रोंको जके उन सभी पत्रोंको अजैन कहना होगा किस आधार पर अजैन करार दिया है। हा, जिनमें आधिकतर सामाजिक आदि विषयोंका
प्रस्तावसे इतना जरूर मालम होता है कि सभा ही प्रसंग रहता है और जो खालिस जैनसिद्धा
इन पत्रोंके लेखोंको जैनधर्मके विरुद्ध और न्तोंके प्रतिपादक नहीं हैं।
जैनधर्मके गौरवको घटानेका उद्योग करनेवाले दूसरा लक्षण मानने पर देश विदेशके उन समझती है। नहीं मालूम सभाने जैनधर्म और सभी राष्ट्रीय ( पोलीटिकल ), वैज्ञानिक, उसकी विरुद्धताका क्या आशय समझा है। न्यापारिक और कलाकौशलादि संबंधी पत्रोंको क्या वह, जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंपर आघात न भी जैनपत्र कहना होगा, जिनका किसी भी करते हुए, प्रचलित रीति-रिवाजोंके विरोधकोधर्मसे कुछ सम्बंध नहीं है, और इस लिये जो उनमें देशकालानुसार कुछ परिवर्तन करनेके जैनधर्मके सिद्धान्तोंका कुछ भी विरोध नहीं परामर्शको-भी जैनधर्मका विरोध समझती हैं ? करते । परंतु जैनसमाजसे भी इन पत्रोंका कोई अथवा अमक सिद्धान्त जैनधर्मका सिद्धान्त हैं खास सम्बंध नहीं, और न वे खास जैन समा- या कि नहीं-हो भी सकता है या कि नहीं, जको लक्ष्य करके निकाले जाते हैं । इस लिये इस प्रकारके विवेचनको भी धर्मविरुद्धतामें उन्हें कोई जैनपत्र नहीं कहता।
परिगणित करती है ? यदि ऐसा है तो समझना तीसरा लक्षण स्वीकार करने पर 'सत्योदय' चाहिये कि सभा बड़ी भारी भूल कर रही है । और 'जातिप्रबोधक' उसकी सीमासे बाहर वह अंधश्रद्धा-अंधविश्वासका एकच्छत्र राज्य नहीं रहते-वे बराबर जैनपत्र कहलानेके योग्य चाहती है, अविवेकको आश्रय देने-पुष्टिप्रदान
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