Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ wwwmahr.nn अङ्क ७-८] जैनाचार्योंका शासनभेद। २०५ maaaaaaaaaaa इससे भी उक्त व्रतोंका समर्थन होता है। कुछ भी हो, अभी तक हम इस विषयमें यथार्थ बल्कि इन दोनों टीकाकारोंने जिस प्रकारसे निर्णय नहीं कर सके । समयाभाव और ग्रंथोंउमास्वातिपर आर्षक्रमोल्लंघनका आरोए लगाकर की अप्राप्तिके कारण यह भी मालूम नहीं कर उसका समाधान किया है, और जिसका ऊपर सके कि उक्त व्रतोंके नामादिक संबंधमें किसी उल्लेख किया गया है, उससे ऐसा मालूम होता विशेष मतभेदको रखनेवाले भी कोई आचार्य, है कि श्वेताम्बरसम्प्रदायके आगम ग्रंथोंमें भी, श्वेताम्बरसंप्रदायमें, हुए हैं या कि नहीं । मालूम जिन्हें वे गणधर सुधर्मास्वामी आदिके बनाये होने पर प्रकट किया जायगा । यदि कोई श्वेताहुए बतलाते हैं, इन्हीं सब व्रतोंका इसी क्रमसे म्बर विद्वान हमें, इस विषयमें, किसी विशेष विधान किया गया है। परंतु उनमें गुणवत बातसे सूचित करनेकी कृपा करेंगे तो हम और शिक्षाव्रतका विभाग भी किया गया है उनके इस कृत्यके लिये बहुत आभारी होंगे। या कि नहीं, यह बात अभी संदिग्ध है। क्योंकि सरसावा । ता० ११ जून सन १९२० । 'उपासकदशा' नामके आगम ग्रंथमें, जो द्वादशांगवाणीका सातवाँ अंग कहलाता है, ऐसा कोई विभाग नहीं है । उसमें इन व्रतोंको, __“ समाचारपत्र एक संस्था है जिसे निरन्तर उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र, तत्वार्थाधिगमभाष्य उत्कर्ष और संशोधनके लिये संग्राम करते रहना और सूत्रकी उक्त दोनों टीकाओंकी तरह, चाहिये, जिसे चाहिए कि कभी भी अन्याय वा शीलव्रत भी नहीं लिखा, बल्कि सात शिक्षा अनीतिको सहन न करे, सदा सब दलोंके व्रत बतलाया है । यथाः (ऐसे) बेअसूले अगुओंसे लड़ता रहे (जो “समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिएपं चाणुव्वइयं जनताके अंधविश्वासों और कमजोरियोंसे लाभ सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि।" उठाते हों), स्वयं कभी किसी दल विशेषका ___ इसके सिवाय अतिथिसंविभागको ‘यथा होकर न रहे, अनुचित अधिकार पाई हुई संविभाग' व्रत प्रतिपादन किया है। इससे श्रेणियों और जनताके लूटनेवालोंका सदा विरोध ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर संप्रदायमें " करता रहे, कभी भी गरीबोंकी ओर सहानुभूपहले इन व्रतोंको सात शिक्षावत माना जाता तिमें कमी न करे, हमेशा सार्वजनिक कल्या " णकी बातोंमें अनन्यभावसे लिप्त रहे, केवल था, बादमें इनके गुणवत और शिक्षाव्रत ऐसे । खबरें छाप देनेसे ही कभी भी संतुष्ट न रहे, वरन् दो विभाग किये गये हैं । साथ ही, इन्हें 'शील' . संज्ञा भी दी गई है। इसी तरह यथासंविभागके.सदा जोकि साथ स्वाधीन रहे और कभी भी स्थानमें बादको अतिथिसंविभागका परिवर्तन । किसी दुष्कर्म पर हमला करनेसे न डरे, चाहे किया गया है । संभव है कि इस बादके संपूर्ण वह दुष्कर्म धनाढ्य और अधिकारप्राप्त लुटेपरिवर्तनको कुछ आचार्योंने स्वीकार किया हो और - रोंकी ओरसे हो और चाहे निर्धन लुटेरोंकी ओरसे । " * . कुछने स्वीकार न किया हो । और यह भी संभव -दि वर्ल्ड । है कि दूसरे आगमग्रंथों में पहलेहीसे गुणव्रत और * ये वाक्य दैनिक ‘भविष्य' के शुरूमें श्रीयुत शिक्षावतके व्यपदेशको लिये हुए इन व्रतोंका जोजफ पुलिटजर द्वारा संपादित ‘दि वर्ल्ड' नामक शीलव्रतरूपसे विधान हो और चौथे शिक्षा- अमरीकन पत्रके प्रथम अंकके अग्रलेखसे उदधृत किये वतका नाम अतिथिसंविभाग ही दिया हो। गये हैं और वहींसे यहाँपर लिये गये हैं। -संपादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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