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अङ्क ७-८]
जैनाचार्योका शासनभेद। दिया गया है तो फिर सूत्रकार ( उमास्वाति )ने है वह कुछ कार्यसाधक मालूम नहीं होता। उसके विरुद्ध भिन्नक्रम किस लिये रक्खा है। सूत्रकार जैसे विद्वानोंसे ऐसी बड़ी गलती कभी अर्थात्, दिग्विरत्यादि गुणवतोंका कथन पूरा नहीं हो सकती कि वे, जानते बूझते और किये बिना ही बीचमें 'देशविरति' नामके मानते हुए भी, ख्वामख्वाह एक जातिके शिक्षाव्रतका उपदेश क्यों दिया है ? और फिर व्रतको दूसरी जातिके व्रतोंमें शामिल कर दें, आगे स्वयं ही इस क्रमभंगके आरोपका समाधान उन्हें ऐसी बातोंका खास खयाल रहता है किया है । यथाः-
और इसी लिये उन्होंने अपने सूत्रमें अनेक ___“संप्रति क्रमनिर्दिष्टं देशव्रतमुच्यते । अत्राह बातोंको, किसी न किसी विशेषताके प्रतिपादवक्ष्यति भगवान् देशव्रतं । परमार्षप्रवचनक्रमः कैम- नार्थ, अलग अलग विभक्तियों द्वारा दिखला
.द्भिन्नः सूत्रकारेण । आर्षे तु गुणव्रतानि क्रमेणादिश्य नेकी चेष्टा की है । यहाँ क्रमनिर्देशसे ही गुणशिक्षाव्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा । तत्रायम-. व्रत और शिक्षाव्रत अलग हो जाते हैं, इस भिप्रायः पूर्वतो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहीतं न लिये किसी विभाक्तिद्वारा उन्हें अलग अलग चास्तिसंभवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्याऽतस्तद- दिखलानेकी जरूरत नहीं पड़ी। हाँ, दिग्देनंतरमेवोपदिष्टं देशव्रतमिति । देशे भागेऽवस्थापनं ..
शानर्थदंडके बाद 'विरति' शब्द लगाकर प्रतिदिन प्रतिप्रहर प्रतिक्षणमिति सुखाबबोधार्थ
इन तीनों व्रतोंकी एकजातीयता और दूसरे मन्यथाक्रमः ।"
व्रतोंसे विभिन्नताको कुछ सूचित जरूर किया . इस अवतरणमें क्रमभंगके आरोपका जो
है, ऐसा मालूम होता ह। यदि उमास्वातिको समाधान किया गया है और उसका जो अभि-..
- 'देशविरति ' नामके व्रतका शिक्षाव्रत होना प्राय बतलाया गया है, वह इस प्रकार है:
___इष्ट था तो कोई वजह नहीं थी कि वे उसका “ पहलेसे सौ योजन गमनका परिमाण ग्रहण यथास्थान निर्देश न करते । तत्त्वार्थाधिगमकिया था, परंतु यह संभव नहीं कि प्रति दिन माष्यमें भी, जिसे स्वयं उमास्वातिका बनाया इतने परिमाणमें दिशाओंका अवगाहन हो हुआ भाष्य बतलाया जाता है, इस विषयका सके इस लिये उसके ( दिग्वतके ) बाद ही कोई स्पष्टीकरण नहीं है । यदि उमास्वातिने देशवतका उपदेश दिया गया है। इस तरह सखावबोधके लिये ही ( जो प्रायः सिद्ध सुखसे समझमें आनेके लिये ( सुखावबोधार्थ) नहीं है ) .यह क्रमभंग किया होता और तत्त्वासूत्रकारने यह भिन्नक्रम रक्खा है ।"
धिगमभाष्य स्वयं उन्हींका स्वोपज्ञ टीकाजो विद्वान् निष्पक्ष विचारक हैं उन्हें ऊपरके ग्रंथ था तो वे उसमें अपनी इस बातका स्पष्टीइन समाधानवाक्योंसे कुछ भी संतोष नहीं करण जरूर करते, ऐसा हृदय कहता है। परंतु हो सकता । वास्तवमें इनके द्वारा आरोपका वैसा नहीं पाया जाता और न उनकी इस कुछ भी समाधान नहीं हो सका । देशव्रतको सुखावबोधिनी वृत्तिका श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दिग्वतके अनन्तर रखनेसे वह भले प्रकार समै- पीछेसे कुछ अनुकरण देखा जाता है। इस झमें आ जाता है, बादको दूखनेसे वह सम- लिये, विना इस बातको स्वीकार किये कि झमें न आता या कठिनतासे समझमें आता, उमास्वाति आचार्य देशविरति नामके व्रतको ऐसा कुछ भी नहीं है । और इस लिये 'सुखाव- गुणवत और उपभोगपरिभोगपरिमाण नामके बोध' नामके जिस हेतुका प्रयोग किया गया व्रतको शिक्षाबत मानते थे, उक्त क्रमभंगके
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