Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 12
________________ - जैनहितैषी [साग १४ परिमाण, ये ही तीन गुणवत हैं। १ सामायिक, वाय उन्होंने गुणवतोंमें 'देशविरति' नामके २ प्रोषध, ३ अतिथिपूजन और ४ अन्तमें एक नये व्रतकी कल्पना की है और, साथ ही, सल्लेखना, ये चार शिक्षाव्रत हैं। भोगोपभोगपरिमाण व्रतको गुणवतोंसे निकाल कर शिक्षाव्रतोंमें दाखिल किया है । तत्त्वार्थसूत्रके ___ २-तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता श्रीउमास्वाति आचार्यने यद्यपि अपने सूत्रमें 'गुणवत' ऐसा टीकाकारों पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानंदस्पष्ट नामोल्लेख नहीं किया तो भी सप्तशील मेंसे किसीने उनके इस कथनपर कोई आपत्ति व्रतोंका जिस क्रमसे निर्देश किया है उससे नहीं की। बल्कि विद्यानंदने एक वाक्यद्वारा साफ मालूम होता है कि उन्होंने १ दिग्विरति, २ "" तौरसे सल्लेखनाको अलग दिखलाया है और देशविरति, ३ अनर्थदंडविरतिको गुणवत, और यह प्रतिपादन किया है कि जिस प्रकार मुनियोंके महाव्रत और शीलवत सम्यक्त्वपर्वक तथा सल्लेख१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ४ अतिथिसंविभागको शिक्षावत माना नान्त होते हैं उसी प्रकार गृहस्थके पंच अणुव्रत और गुणवत-शिक्षाव्रतके विभागको लिये हुए, है । यथाः सप्तशीलवत भी सम्यक्त्वपूर्वक तथा सल्लेखनान्त दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोग- समझने चाहियें। अर्थात्, इन व्रतोंसे पहले सम्यपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च । क्त्वकी जरूरत है और अन्तमें-मृत्युके संनिकट . इस सूत्रकी टीकामें-सर्वार्थसिद्धिमें-श्रीपूज्य- होनेपर-सल्लेखना, संन्यास अथवा समाधिका पाद आचार्य भी दिग्विरतिः, देशविरतिः, अनर्थ- विधान होना चाहिये । वह वाक्य इस प्रकार है:दंडविरतिरिति । एतानि त्रीणिगुणवतानि, 'तेन गृहस्थस्य पंचाणुव्रतानि सप्तशीलानि गुण इस वाक्यके द्वारा पहले तीन व्रताको गुणवत व्रतशिक्षाव्रतव्यपदेशभांजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्त्वसूचित करते हैं । और इसलिये बाकीके चारों , पूर्वकाः सल्लेखनाताश्च महाव्रततच्छीलवत् ।' व्रत शिक्षाव्रत हैं, यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है; ____ इस वाक्यमें गृहस्थके बारहव्रतोंको 'द्वादश क्योंकि शीलवत गुणशिक्षावतात्मक कहलाते हैं। ' दीक्षाभेद' प्रकट किया है, जिससे उन लोगोंका सप्तशीलानि गुणवतशिक्षाव्रतव्यपदेशभांजीति, बहुत कुछ समाधान हो सकता है जो अभीतक ऐसा, श्लोकवार्तिकमें, श्रीविद्यानन्द स्वामीका यह समझे हुए हैं कि श्रावकके बारहव्रतोंका भी वाक्य है। युगपत् ही ग्रहण होता है, क्रमशः अथवा ___ इससे उमास्वाति आचार्यका शासन, और व्यस्त रूपसे नहीं।। संभवतः उनके समर्थक श्रीपूज्यपाद और विद्या- हाँ, श्वेताम्बर टीकाकारोंमें श्रीसिद्धसेनगणि नंदस्वामीका शासन भी, इस विषयमें, कुंदकुंदा- और यशोभद्रजीने उमास्वातिके उक्त सूत्र पर चार्यके शासनसे एकदम विभिन्न जान पड़ता कुछ आपत्ति जरूर की है। उन्होंने, दिग्विरतिके हैं। उमास्वातिने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें तो बाद देशविरातिके कथनको परमागमके क्रमसे क्या, श्रावकके बारह व्रतोंमें भी वर्णन नहीं विभिन्न सूचित करते हुए, एक प्रश्न खड़ा किया; बल्कि व्रतोंके अनन्तर उसे एक जुदा ही किया है ओर उसके द्वारा यह विकल्प उठाया धर्म प्रतिपादन किया है, जिसका अनुष्ठान मुनि है कि, जब परमागममें गुणवतोंका क्रमसे और श्रावक दोनों किया करते हैं। इसके सि- निर्देश करनेके बाद शिक्षावतोंका उपदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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