________________
जनहितैषी
भाग १४ आरोपका समुचित समाधान नहीं बनता। हमारी ‘भोगोपभोगसंख्यानं...तृतीयं तत्तदाख्यं स्यात्...॥' रायमें, ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर
-धर्मशर्माभ्युदये श्रीहरिचंद्रः । सम्प्रदायके आगम ग्रंथोंसे तत्त्वार्थसूत्रकी विधि ऊपरके इन सब अवतरणोंसे साफ प्रकट है ठीक मिलानेके लिये ही यह सब खींचातानी कि श्रीसोमदेवसरि, चामंडराय, अमितगति की गई है । अन्यथा, उमास्वाति आचार्यका मत आचार्य और श्रीहरिचंद्रजीने दिम्बिरति, देशइस विषयमें वही मालूम होता है जो इस नम्बर विरति , अनर्थदंडविरति इन तीनोंको गणवत (२) के शुरूमें दिखलाया गया है और और सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग जिसका समर्थन श्रीपूज्यपादादि आचार्योंके परिमाण, अतिथिसंविभाग, इन चारोंको शिक्षावाक्योंसे भले प्रकार होता है । और भी बहुतसे व्रत वर्णन किया है। साथ ही, इन सभी विदाआचार्य तथा विद्वान् इस मतको माननेवाले नोंने भी सल्लेखनाको श्रावकके बारह व्रतोंसे हुए हैं, जिनमेंसे कुछके वाक्य नीचे उद्धृत , अलग एक जदा धर्म प्रतिपादन किया है। इस किये जाते हैं:
लिये इनका शासन भी, इस विषयमें, श्रीकुंदक-दिग्देशानर्थदंडानां विरतिस्त्रितयाश्रयम् । कुंदाचार्यके शासनसे विभिन्न है । परंतु उसे गुणव्रतत्रयं सद्भिः सागारयतिषु स्मृतम् ॥ उमास्वातिके शासनके अनुकूल समझना चाहिये। आदौ सामायिकं कर्म प्रोषधोपासनक्रिया ।
३-स्वामी समंतभद्र, अपना शासन, इस सेव्यार्थनियमो दानं शिक्षाव्रतचतुष्टयं ॥ विषयमें, कुंदकंद और उमास्वातिके शासनसे
-यशस्तिलके सोमदेवः। कुछ भिन्नाभिन्नरूपसे स्थापित करते हुए, अपने यहाँ 'सेव्यार्थनियम' से उपभोगपरिभोग- 'रत्नकरंडक' नामके उपासकाध्ययनमें, इन परिमाणका और 'दान' से अतिथिसंविभागका व्रताका प्रतिपादन इस प्रकारसे करते हैं:अर्थ समझना चाहिये।
दिग्वतमनर्थदंडव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । . ख-स्थवीयसी विरतिमभ्युपगतस्य श्रावकस्य व्रत- अनुबृंहणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ॥ विशेषो गुणव्रतत्रयं शिक्षाव्रतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्यु- देशावकाशिकं वा सामयिक प्रोषधोपवासो वा । च्यते । दिग्विरतिः, देशविरतिः, अनर्थदंडविरतिः, वैय्यावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारिं शिष्टानि ॥ सामायिकं, प्रोषधोपवासः, उपभोगपरिभोगपरिमाणं,
__अर्थात्-दिग्वत, अनर्थदंडवत और भोगोअतिथिसंविभागश्चेति ।
पभोगपरिमाण; इन तीन व्रतोंके द्वारा -चारित्रसारे श्रीचामुंडरायः
गुणोंकी ( अणुव्रतों अथवा समंतभद्र प्रतिपादित म-दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिर्या विधीयते
अष्ट मूलगुणोंकी) वृद्धि तथा पुष्टि होनेसे आर्य जिनेश्वरसमाख्यातं त्रिविधं तद्गुणवतं ॥
पुरुष इन्हें गुणव्रत कहते हैं । देशावकाशिक, -सुभाषितरत्नसंदोहे अमितगतिः। सामायिक, प्रोषधोपवास और वय्यावृत्य, ये "देशविरतेर्द्वितीयं गुणव्रतं वर्ण्यते तस्य ॥” . चार शिक्षाव्रत बतलाये गये हैं। "भोगोपभोगसंख्या शिक्षाव्रतमुच्यते तस्य ॥” इससे स्पष्ट है कि गुणवतोंके सम्बंधमें स्वामी
___-उपासकाचारे अमितगतिः। समंतभद्र और कुंदकुंदाचार्यका शासन एक है। घ-दिग्देशानर्थदंडेभ्यो यत्रिधा विनिवर्तनम्। परंतु शिक्षाव्रतोंके सम्बंधमें वह एक नहीं है ।
पोतायते भवाम्भोधौ त्रिविधं तद्द्वणव्रतम् ॥' समंतभद्रने 'सल्लेखना' को शिक्षात्रतोंमें नहीं
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International