Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 16
________________ ܘܘ जैनहितैषी - हो, इस विषय में समंतभद्रके शासनसे और उन श्वेताम्बर आचार्यों के शासन से विभिन्न है जिन्होंने ' देशावकाशिक ' को शिक्षावत प्रतिपादन किया है । ४ - स्वामिकार्तिकेयने, अपने अनुपेक्षाग्रंथ में, देशावकाशिकको चौथा शिक्षावत प्रतिपादन किया है । अर्थात्, शिक्षावतों में उसे पहला दर्जा न देकर अन्तका दर्जा प्रदान किया है । साथ ही, उसके स्वरूप में दिशाओंके परिमाणको संकोचने के साथ साथ इंद्रियोंके विषयोंको अर्थात् भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका विधान किया है । यथा: पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसणं पुणोवि संवरणं । इंदियविसयाण तहा पुणोवि जो कुणदि संवरणं ॥ वासादिकयपमाणं दिदिणे लोहकामसमणत्थं । सावज्जवजण तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ । इस तरह उनके इस व्रतका क्रम तथा विषय समंतभद्रके क्रम तथा विषयसे कुछ भिन्न है और इस भिन्नताके कारण दूसरे शिक्षाव्रतोंके क्रम में भी भिन्नता आ गई है - उनके नम्बर बदल गये हैं । इसके सिवाय स्वामि कार्तिकेयने वैय्यावृत्य के स्थानमें 'दान' का ही विधान किया है । इन सब विभिन्नताओंके सिवाय अन्य प्रकारसे उनका शासन, इस विषय में, समंतभद्रके शासनसे प्रायः मिलता जुलता हैं । और इस लिये यह कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि स्वामिकार्तिकेयका शासन कुंदकुंद, उमास्वाति, पूज्यपाद, विद्यानंद, सोमदेव, अमितगति और कुछ समंतभद्र के शासन से भी भिन्न है । ५-श्रीजिनसेनाचार्य, अपने आदिपुराण ग्रंथके १० वें पर्व में, लिखते हैं: दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिः स्याद्गुणव्रतम् । भोगोपभोग संख्यानमप्याहुस्तद्गुणव्रतम् ॥ ६५ ॥ ... दाणं जो देदि सयं णवदाणविहीहिं संजुत्तो । सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे...... ॥ * Jain Education International * [भाग १४ समतां प्रोषधविधिं तथैवातिथि संग्रहम् । मरणान्ते च संन्यासं प्राहुः शिक्षा व्रतान्यपि ॥ ६६ ॥ अर्थात् -दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति, ( तीन ) गुणवत हैं । भोगोपभोगपरिमाणको भी गुणव्रत कहते हैं । समता ( सामायिक ), प्रोषधविधि, अतिथिसंग्रह ( अतिथिपूजन ) और मरणके संनिकट होने पर संन्यास, इन ( चारों ) को शिक्षावत कहते हैं । इससे मालूम होता है कि श्रीजिनसेनाचार्यका मत, इस विषय में, समन्तभद्र के मंतसे बहुत कुछ भिन्न है । उन्होंने देशविरतिको शिक्षावतोंमें न रख कर उमास्वाति तथा पूजापादादिके सदृश उसे गुणवतों में रक्खा है, और " साथ ही संन्यास ( सल्लेखना ) को भी शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है। इसके सिवाय भोगोपभोगपरिमाणको भी जो उन्होंने गुणव्रत सूचित किया है उसे केवल समन्तभद्रादिके मतका उल्लेख मात्र समझना चाहिये । अन्यथा, गुणव्रतोंकी संख्या चार हो जायगी, और यह मत प्रायः सभी से भिन्न ठहरेगा । हाँ, इतना जरूर हैं कि इसमें गुणवतसंबंधी प्रायः सभी मतोंका समावेश हो जायगा । शिक्षाव्रतोंके सम्बंध में आपका मत कुंदकुंदको छोड़कर उमास्वति, पूज्यपाद, विद्यानंद, सोमदेव, अमितगति, समंत - और स्वामिकार्तिकेय आदि प्रायः सभ आचार्योंसे भिन्न पाया जाता है । भद्र २ - श्रीवसुनन्दी आचार्यने, अपने श्रावकाचार में, शिक्षाव्रतोंके १ भोगविरति, २ परिभोगनिवृति, ३ अतिथिसंविभाग ओर ४ सल्लेखना ये चार नाम दिये हैं । यथाः- 'तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते । ' " तं परिभोयणिवृत्ती विदिय सिक्खावयं जाणे । ' अतिहिस्स संविभागो तिदियं सिक्खावयं मुणेयब्वं ।" सल्लेखणं चत्थं सुत्ते सिखावयं भणियं । ' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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