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अङ्क ७-८]
जैनाचार्योका शासनभेद।
रक्खा बल्कि उसकी जगह 'देशावकाशिक' ही रखना पसंद किया है । और उसका लक्षण नामके एक दूसरे व्रतकी तजवीज की है और भी दानार्थप्रतिपादक किया है । यथाःउसे शिक्षावतोंमें सबसे पहला स्थान प्रदान किया व्रतमतिथिसंविभागः पात्रविशेषाय विधिविशेषेण । है। रही उमास्वातिके साथ तुलनाकी बात, द्रव्यविशेषवितरणं दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥५-४१ समंतभद्रका शासन उमास्वातिके शासनसे दोनों देशावकाशिक व्रतका वर्णन करते हुए, ही प्रकारके व्रतोंमें कुछ विभिन्न है । उमास्वातिने टीकामें, पं० आशाधरजीने लिखा है कि, शिक्षाजिस देशविरति व्रतको दूसरा गुणवत बात- की प्रधानता और परिमितकाल भावितपनेकी लाया है समंतभद्रने उसे 'देशावकाशिक' वजहसे इस व्रतको शिक्षाक्तत्वकी प्राप्ति है । नामसे पहला शिक्षाक्त प्रतिपादन किया है। यह दिग्वतके समान यावज्जीविक नहीं होता ।
और समंतभद्रने जिस · भोगोपभोगपरिमाण' परंतु तत्त्वार्थसूत्र आदिकमें जो इसे गुणनामके व्रतको गुणवतोंमें तीसरे नम्बर पर रक्खा व्रत माना है सो वहाँ इसका लक्षण दिग्वतको है उसे उमास्वातिने शिक्षाव्रतोंमें तीसरा स्थान
संक्षिप्त करने मात्र विवक्षित मालूम होता है । साथ प्रदान किया है। इसके सिवाय 'अतिथिसंविभाग' ही वहाँ इसे दूसरे गुणवतादिकोंका संक्षेप करनेके .के स्थानमें 'वैय्यावृत्य' को रखकर समंतभद्रने लिये उपलक्षण रूपसे प्रतिपादित समझना उसकी व्यापकताको कछ अधिक बढ़ा दिया चाहिये । अन्यथा, दूसरे व्रतोंके संक्षेपको यादे है। उससे अब केवल दानका ही प्रयोजन नहीं अलग अलग व्रत करार दिया जाता तो व्रतोंकी
'बारह' संख्या में विरोध आता । यथाःरहा बल्कि उसमें संयमी पुरुषोंकी दूसरी प्रकार
'शिक्षाव्रतत्वं चास्य शिक्षाप्रधानत्वात्परिमितकालकी सेवा टहल भी आ जाती है। इसी बातका
भावित्वाचोच्यते । न खल्वेतदिग्व्रतवद्यावज्जीविमपीस्पष्टीकरण करनेके लिये आचार्य महोदयने, घ्यति । यत्तु तत्त्वार्थादौ गुणव्रतत्वमस्य श्रूयते तद्दिव्रतअपने ग्रंथमें, दानार्थप्रतिपादक पद्यसे भिन्न संक्षेपण लक्षणत्वमात्रस्येव विवक्षित्वाल्लक्ष्यते । दिव्रतएक दूसरा पद्य भी दिया है जो इस प्रकार है:- संक्षेपकरणं चात्रा (न्य ) गुणवतादि संक्षपकरणस्याव्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । प्युपलक्षणं द्रष्टव्यं । एषामपि संक्षेपस्यावश्यकर्तव्यत्वावैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ प्रतिव्रतं च संक्षेपकरणस्य भिन्नत्रतत्वे गुणा: स्युाद
पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामतमें- शेति संख्याविरोधःस्यात् ॥' इन व्रतोंका कथन प्रायः स्वामी समंतभटके मता- पं० आशाधरजीके इन वाक्यासे यह बात नुसार ही किया है । गुणव्रतोंका कथन प्रारंभ आर भा स्पष्ट हा ,
और भी स्पष्ट हो जाती है कि उमास्वातिका करते हुए, टीकामें, “आहब्रवन्ति स्वामिमतान- शासन, चाहे वह किसी भी विवक्षासे * क्यों न सारिणः' इस वाक्यके द्वारा उन्होंने स्वामी समंत- * पं० आशाधरजीने जिस विवक्षाका उल्लेख किया भद्रके मतकी औरोंसे भिन्नता और अपनी उसके है उसके अनुसार 'देशव्रत' गुणव्रत हो सकता है
और उसका नियम भी यावज्जीवके लिये किया जा साथ अनुकूलताको खुले शब्दोंमें उद्घोषित किया
सकता है । इसी तरह भोगोपभोगपरिमाण यावहै । परंतु शिक्षावतोंका प्रारंभ करते हुए टीकामें
जीविक भी होता है. ऐसा न मानकर यदि उसे ऐसा कोई वाक्य नहीं दिया, जिसका कारण नियतकालिक ही माना जावे तो इस विवक्षासे वह शायद यह मालूम होता है कि उन्होंने समंत- शिक्षावों में भी जा सकता है । विवक्षासे केवल भद्रके 'वैय्यावृत्य' नामक चौथे शिक्षावतके विरोधका परिहार होता है। परंतु शासनभेद और स्थानमें उमस्वातिके 'अतिथिसंविभाग' व्रतको भी अधिकताके साथ दः तथा स्पष्ट हो जाता है।
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