Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 8
________________ जैनहितैषी . [भाग १४ प्रबंधकर्ताका मखौल ही उड़ाना है; बल्कि यों है। परन्तु इसके विरुद्ध, जब तक मनुष्यको कहना चाहिये कि इस तरह तो असिलमें यह खयाल बना रहेगा कि खुशामद करने, उसका न होना ही सिद्ध करना है। स्तुतियाँ पढ़ने या भेट चढ़ाने आदिके द्वारा भी . अफसोस है कि मनुष्योंने वस्तुस्वभावको मेरे अपराध क्षमा हो सकते हैं तब तक वह बुरे न जानकर विना किसी हेतुके ही संसारका कृत्य करनेसे नहीं बच सकता और न शुभ आचएक प्रबन्धकर्ता मान लिया है । पृथ्वी पर रणोंकी तरफ लग सकता है । अतः मैं संसारके राजाओंको मनुष्योंके बीचमें प्रबंधसम्बंधी कार्य सभी लोगोंसे पुकार पुकार कर यह अपील करता करता हुआ देखकर सारे संसारके प्रबंधकर्ताको हूँ कि वे कारण-कार्यके अटल सिद्धान्तको मान भी वैसा ही कमशक्तिवाला समझ लिया है कर वस्तुस्वभाव पर पूरा पूरा विश्वास लावें, और जिस प्रकार राजा लोग खुशामद तथा अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके वास्ते स्तुतिसे प्रसन्न होकर खुशामद करनेवालोंके पूरी तौरसे तय्यार रहें और उनका फल टल काबू में आ जाते हैं और उनकी इच्छाके अन- जाना बिलकुल ही असंभव समझें । ऐसा भान सार ही उलटे सीधे कार्य करने लग जाते हैं लेने पर ही मनुष्योंको अपने ऊपर पूरा भरोसा उस ही प्रकार दुनियाके लोगोंने संसारके होगा, वे अपने पैरोंके बल खड़े होकर अपने प्रबंधकर्ताको भी खुशामद तथा स्ततिसे आचरणोंको ठीक बनानेके लिये कमर बाँध काबूमें आजानेवाला मानकर उसकी भी खशा- सकेंगे और तब ही दुनियासे ये सब पाप और मद करनी शुरू कर दी है और वे अपने आच- अन्याय दूर हो सकेंगे। नहीं तो, किसी प्रबंधरणको सुधारना छोड़ बैठे हैं। यही कारण कर्ताके माननेकी अवस्थामें, अनेक प्रकारके है कि संसारमें ऐसे ऐसे महान् पाप फैल भ्रम हृदयमें उत्पन्न होते रहेंगे और दुनियाके रहे हैं जो किसी प्रकार भी दूर होनेमें नहीं लोग पाप करनेकी तरफ ही झुकेंगे । एक तो आते। जब संसारके मनुष्य इस कच्चे खया- यह सोचने लग जायगा कि यदि उस प्रबंधलको हृदयसे दूर करके वस्तुस्वभावके अटल कर्ताको मुझसे पाप कराना मंजूर न होता तो सिद्धान्तको मानने लग जावें तब ही उनके वह मेरे मनमें पाप करनेका विचार ही क्यों आने दिलोंमें यह खयाल जड पकड सकता है कि जिस देता; दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकार आँखोंमें मिरच झोंक देनेसे या घाव पर प्रकारके पाप कराना न चाहता तो वह मुझे नमक छिड़क देनेसे दर्दका हो जाना जरूरी है ऐसा बनाता ही क्यों, जिससे मेरे मनमें इस और वह दर्द किसी प्रकारकी खुशामद या प्रकारके पाप करनेकी इच्छा पैदा होवे; तीसरा स्तुतिके करनेसे दूर नहीं हो सकता, उस ही कहेगा कि यदि वह पापोंको न कराना चाहता प्रकार जैसा हमारा आचरण · होगा उसका तो पापोंको पैदा ही क्यों करता; चौथा सोचेगा फल भी हमको अवश्य ही भुगतना पड़ेगा, कुछ ही हो अब तो यह पाप कर लें फिर वह केवल खुशामद तथा स्ततिसे टाला न ट- संसारके प्रबंधकर्ताकी खशामद करके औ लेगा। जैसा बीज वैसा वृक्ष और जैसी करनी नजर भेट चढ़ाकर क्षमा करा लेंगे; गरज यह वैसी भरनीके सिद्धान्त पर पूर्ण विश्वास हो कि संसारका प्रबंधकर्ता माननेकी अवस्थामें आने पर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच तो लोगोंको पाप करनेके लिये सैकड़ों बहाने। सकता है और भले कृत्योंकी तरफ लग सकता बनानेका अवसर मिलता है, परन्तु वस्तुस्वभावके . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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