Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद । HTRATIMmmmmmmmmmmittainin ३२९ श्लोक लिखें हुए मालूम नहीं होते । साथ ही त्रका उपदेश दिया-एक ही बातको प्रतिपादन ज्ञानार्णवमें इनकी स्थिति भी बहुत संदेह- करनेवाले दो श्लोकोंके इस तरह पर एक जनक जान पड़ती है । आश्चर्य नहीं कि ये साथ रक्खे जानेकी कोई वजह नहीं होसदोनों श्लोक वहाँ पर क्षेपक हों । क्योंकि कती । इनमेंसे किसी एकका ही संगठन यहाँ पहले श्लोक ( नं० २ ) में जिस सामायि- पर ठीक बैठता है । हो सकता है कि श्लोक कादि पंचप्रकारके चारित्रका उल्लेख है उसका, नं० ३ क्षेपक न हो बल्कि शेष तीनों श्लोक तेरह प्रकारके चारित्रकी तरह, क्रमशः अलग ही क्षेपक हों। क्योंकि ऐसा होने पर भी अलग वर्णन इस ग्रंथमें आगे या पीछे कहीं कथनके सिलसिले और सम्बंधादिमें कुछ भी नहीं है और न वर्णन न करनेके विष. बाधा नहीं पड़ती । परन्तु कुछ भी हो इसमें यमें कोई शब्द ही दिया है । इससे पहला संदेह नहीं कि विवादस्थ श्लोकों (नं० श्लोक कुछ अनावश्यक और असम्बंधित २-३ ) की स्थिति संदेहजनक जरूर है। जान पड़ता है। और दूसरे श्लोक (नं० ३) अस्तु । इन सब बातोंके सिवाय जब पहले में जो तेरह प्रकारके चारित्रका कथन है वही श्लोक ( नं. २ ) में ऋषभादि जिनके कथन उसके बादके इन दो श्लोकोंमें भी द्वारा सामायिकादि पंच प्रकारके चारित्रका पाया जाता है: विस्तारसहित वर्णन किया जाना लिखा है "पंचपंचत्रिभिर्भदैर्यदुक्तं मुक्तसंशयैः। और पंच प्रकारके चारित्रमें छेदोपस्थापना भवभ्रमणभीतानां चरणं शरणं परम् ॥ ४॥ भी एक भेद है, जिसे तत्त्वबुभुत्सुजीने पंचव्रतं समिपंच गुप्तित्रयपवित्रितम् । स्वीकार किया है. तब फिर तत्त्वबभत्सजीश्रीवीरवदनोद्गीर्ण चरणं चन्द्रनिर्मलम्॥५॥" " का यह कहना कि, महावीर स्वामीके सम___ इन दोनों श्लोकोंके मौजूद होते हुए यसे ही पंचमहाव्रतका कथन चला है, स्लोक नं० ३ बिलकुल व्यर्थ पड़ता है और कहाँ तक यक्तिसंगत और विचारपूर्ण इस व्यर्थताका तब और भी अधिक समर्थन हो सकता है, इसे पाठक स्वयं समझ होता है जब ज्ञानार्णवकी एक हस्तलिखित सकते हैं। मालूम होता है कि तत्त्ववुभुत्सुप्रतिमें, जो कि विक्रम संवत् १८१६ की जीका ध्यान छेदोपस्थापनाके स्वरूप पर ही लिखी हुई है और प्रायः शुद्ध है, श्लोक नहीं पहुँचा । अन्यथा, उन्हें इतना कष्ट नं० ३ से पहले श्लोक नं० ५ को देखते उठानेकी जरूरत न पड़ती। छेदोपस्थापहैं । श्लोक नं. ३ और नं० ५ दोनोंका नाका अर्थ ऊपर साफ शब्दोंमें यह बतविषय एक है-दोनोंमें लिखा है कि महावीर लाया गया है कि ' जिसमें हिंसादिकके स्वामीने ( महावीर स्वामीने ही, ऐसा नहीं) भेदसे समस्त सावद्य कर्मका त्याग किया पाँच व्रत, पाँच समिति आरै तीन गुप्तिरूपी चारि- जाता है उसे छेदोपस्थापना कहते हैं।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 106