Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ ३२८ HOBHABEILITARILALBUL RA जैनहितैषीand in mommmmmmmm En रहा है। और इस लिए जिन लोगोंका ऐसा से २५०० वर्ष पहले हिंसा, झूठ, चोरी, खयाल है कि जैनतीर्थंकरोंके उपदेशमें कुशील और परिग्रहमें अत्यन्त गृद्धता आदि परस्पर रंचमात्र भी भेद या परिवर्तन पापोंने स्वर्गमयी इस भारत भूमिको कलंनहीं होता-जो वचनवर्गणा, एक तीर्थकरके कित नहीं किया था, बादको इनका प्रचार मुँहसे खिरती है वही दूसरे तीर्थकरके मुँह- देखकर श्रीमहावीर स्वामीने इनके विरोधी से निकलती है, उसमें जरा भी फेरफार व्रत, समिति और गुप्तिरूप चारित्रका नहीं होता-वह खयाल निर्मूल जान पड़ता निरूपण किया ।" है। शायद ऐसे लोगोंने तीर्थंकरोंकी वाणी- तत्त्वबुभुत्सुजीका यह समस्त कथन छपे हुए को फोनोग्राफके रिकार्डोंमें भरे हुए मजमूनके ज्ञानार्णवके इन दो श्लोंकों पर अवलम्बित है:सदृश समझ रक्खा है ! परन्तु वास्तवमें “सामायिकादिभेदेन ऐसा नहीं है । ऐसे लोगोंको मूलाचारके पंचधा परिकीर्तितम् । उपर्युक्त कथन पर खूब ध्यान देना चाहिए। ऋषभादिजिनैः पूर्व चारित्रं सप्रपंचकम् ॥ ८-२॥ ___ यहाँ पर उन तत्त्वबुभुत्सुजीका ध्यान पंचमहाव्रतमूलं भी आकर्षित किया जाता है जिन्होंने 'जैनसि- समितिप्रसरं नितान्तमनवद्यम । द्धान्तभास्कर' की चौथी किरणमें 'आव- गुप्तिफलभारनदं श्यकता' शीर्षक लेख दिया था और जिन्होंने सन्मतिना कीर्तितं वृत्तम् ॥३॥" बादको अपने पूर्व लेखका स्पष्टीकरण करनेके इन श्लोकों परसे तत्त्वबुभुत्सुजीने जो लिए " सत्यखोजी ध्यान दें । इस नामका सिद्धान्त निकाला है उसका इन दोनों श्लोएक दूसरा लेख जून सन् १९१५ के · जैन- कॉमें कहीं भी स्पष्टोल्लेख नहीं है । परन्तु तत्वप्रकाशक' में प्रकाशित कराया था। मूलाचारका उपर्युक्त कथन एक विशेष तत्त्ववभत्सजीने अपने इन लेखों द्वारा यह सुहेतुक और स्पष्ट ऐतिहासिक कथन प्रतिपादन किया है कि, “पंच महाव्रतादि है । उसके साथ-उसकी रोशनीमें-इन तेरह प्रकारका चारित्र श्रीमहावीर स्वामीके श्लोकोंको पढ़नेसे इस विषयमें कोई समयसे चला है। इसके पहले ( ऋषभ संदेह नहीं रहता और न यह कहनेमें कुछ देवके समयसे ) सामायिकादि पंच प्रकार ही संकोच ही होता है कि इन श्लोकोंका वह चारित्र था।" साथ ही अपनी ऐतिहासिक अभिप्राय कदापि नहीं है जो तत्त्ववुभुत्सुजीने दृष्टिसे यह नतीजा भी निकाला है कि, समझा है और जिसे उन्होंने खींच खाँचकर " श्रीमहावीरस्वामीके पहले हिंसा आदि दूसरोंको समझानेकी चेष्टा की है। वास्तवमें पापोंको व्रतरूपसे ( विशेषरीतिसे ) निरूपण इन श्लोकोंका विषय एक सामान्य और चलकरनेकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि आज- ताहुआ कथन है-किसी ऐतिहासिक दृष्टि से ये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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