Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 5
________________ SHAHMANOHABBAUMBAMBOMB IHARI जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद । MimitTTTTTimi mirthETIMES ३२७ करता है । क्योंकि उनके समयमें अपरा- शिष्य चलचित्त और मूढमना होते हैंधकी बाहुल्यता नहीं होती । मध्यवर्ती तीर्थ- शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करने पर भी करोंके समयमें जिस व्रतमें अपने या दुस- उसे नहीं जानते । उन्हें क्रमशः ऋजु-जड गेंके अतीचार लगता है उसी व्रतसम्बधी और वक्र-जड समझना चाहिए-इस लिए अतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता उनके समस्त प्रतिक्रमण-दंडकोंके उच्चारणहै । विपरीत इसके आदि और अन्तके का विधान किया गया है और इस विषयमें तीर्थकरों ( ऋषभ और महावीर ) के शिष्य अंधे घोडेका दृष्टान्त बतलाया गया है । ईर्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए टीकाकारने इस दृष्टान्तका जो स्पष्टीकरण समस्त अतीचारोंका आचरण करो या मत किया है उसका भावार्थ इस प्रकार है:करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमण दंडकोंका “किसी राजाका घोडा अंधा हो गया । उच्चारण करना होता है। आदि और अन्तके उस राजाने वैद्यपुत्रसे घोड़ेके लिए ओषधि दोनों तीर्थकरोंके शिष्योंको क्यों समस्त प्रति- पछी। वह वैद्यपुत्र वैद्यक नहीं जानता था और क्रमण-दंडकोंका उच्चारण करना होता है वैद्य किसी दूसरे ग्राम गया हुआ था । अतः और क्यों मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिष्य उनका उस वैद्य-पत्रन घोडेकी आँखको आराम आचारण नहीं करते हैं ? इसके उत्तरमें करनेवाली समस्त ओषधियोंका प्रयोग किया आचार्य महोदय लिखते हैं: और उनसे वह घोड़ा नीरोग हो गया । " मज्झिमया दिढबुद्धी इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमण दंडकमें एयग्गमणा अमोहलक्खाय।। तम्हा हु जमाचरंति स्थिरचित्त नहीं होता हो तो दूसरे होगा, तं गरहंता विसुज्झंति ॥१२८॥ दुसरेमें नहीं तो तीसरेमें, तीसरेमें नहीं तो पुरिम चरिमादु जम्हा चौथेमें, इस प्रकार सर्व प्रतिक्रमण-दंडकोंचलचित्ता चेव मोहलक्खाय । का उच्चारण करना न्याय है । इसमें कोई तो सब्व पडिक्कमणं अंधलय घोड-दिहंतो ॥ १२९॥" विरोध नहीं है; क्योंकि सब ही प्रतिक्रमणअर्थात्-मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य दंडक कर्मके क्षय करनेमें समर्थ हैं।" विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त मूलाचारके इस सम्पूर्ण कथनसे यह और मूढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करने- बात स्पष्टतया विदित होती है कि समस्त वाले होते हैं । इस लिए प्रगटरूपसे वे जिस जैनतीर्थकरोंका शासन एक ही प्रकादोषका आचरण करते हैं उस दोषसे रका नहीं रहा है । बल्कि समयकी आत्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते हैं। आवश्यकतानुसार-लोकस्थितिको देखते पर आदि और अन्तके दोनों तीर्थंकरोंके हुए-उसमें कुछ परिवर्तन जरूर होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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