Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 3
________________ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । बारहवाँ भाग। अंक ७-८. जैनहितैषी। आषाढ,श्रावण २४४२ । जुलाई, अगस्त १९१६. REASNCATEasranASTASTASTCASESASRAER सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ द्वेषी । ? है प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, रहैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥ a बैर विरोध न हो मतभेदतें, हों सबके सब बन्धु शुभैषी । भारतके हितको समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥ जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद ।। (ले०-बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार।) जैनसमाजमें, श्रीवट्टकेराचार्यका बनाया अर्थात्-अजितसे लेकर पार्श्वनाथपर्यंत • हुआ ' मूलाचार ' नामका एक यत्याचारवि- बाईस तीर्थकरोंने सामायिक संयमका और षयक प्राचीन ग्रंथ सर्वत्र प्रसिद्ध है । मूल ऋषभदेव तथा महावीर भगवान्ने — छेदोग्रंथ प्राकृतभाषामें है और उस पर वसु- पस्थापना ' संयमका उपदेश दिया है। नन्दि सैद्धान्तिककी बनाई हुई 'आचारवृत्ति' यहाँ मल गाथामें दो जगह 'च' (य) शब्द नामकी एक संस्कृत टीका भी पाई जाती है। आया है । एक चकारसे परिहारविशुद्धि इस ग्रंथमें, सामायिकका वर्णन करते हुए, आदि चारित्रका भी ग्रहण किया जा सकता ग्रंथकर्ता महोदय लिखते हैं किः है । और तब यह निष्कर्ष निकल सकता है "बावीसं तित्थयरा सामाइयं कि ऋषभदेव और महावीर भगवान्ने संजमं उवदिसंति। सामायिकादि पाँच प्रकारके चारित्रका प्रतिछेदोवहावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य॥७-३२॥" पादन किया है, जिसमें छेदोपस्थापनाकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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