Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 14
________________ 000000000000023-3-2-22220000OCOCO मेरी भावना। (नूतन सामायिक-पाठ।) ले०, श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार । (१) जिसने रागद्वेषकामादिक, जीते, सब जग जान लिया, सब जीवोंको मोक्ष-मार्गका, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, बीर जिन, हरि, हर, ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो, उसके पद-पंकजमें मेरा, मन-मधुकर लवलीन रहो। विषयोंकी आशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं, निज-परके हितसाधनमें जो, निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थत्यागकी कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगतके दुख समूहको हरते हैं। 000000000CCC000000000000000000CCCC02996063000 ®eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeDo रहे सदा सत्संग उन्हींका, ध्यान उन्हींका नित्य रहे, उनही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे। नहीं सताऊँ किसी जीवको, झूठ कभी नहिं कहा करूँ, परधन-वनिता पर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ ॥ अहंकारका भाव न रक्खू , नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरों की बढ़तीको, कभी न ईर्षा-भाव धरूँ। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य-व्यवहार करूँ, बने जहाँतक इस जीवनमें, औरोंका उपकार करूँ॥ मैत्री-भाव जगतमें मेरा, सब जीवोंसे नित्य रहे, दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उरसे करुणा-स्रोत बहे । दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर, क्षोभ न मेरेको आवे, साम्य-भाव रक्यूँ मैं उनपर, ऐसी परिणति हो जावे ॥ CODBODOODeeeeeeeeeeeeeees@@@ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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