Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 66
________________ २४२ जैनहितैषी - ढूँढने पर भी जैनहितैषीका कोई ग्राहक न मिले - गा । हितैषीके प्रायः ग्राहक ऐसे ही हैं जिन तक आपके प्रभाव की पहुँच नहीं और जो आपसे अधिक विवेक-बुद्धि रखते हैं । और अपने ग्राहकों की योग्यता पर हमें यथेष्ट अभिमान है । यदि दश बीस आपहीकी योग्यताके ग्राहक आपकी प्रेरणा से घट जायँगे, तो इससे हमें यह समझकर खुशी ही होगी कि विधाताके निकट हमारी यह प्रार्थना स्वीकृत हो गई- अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख । " । ८ प्रगति - सम्पादकका मार्मिक नोट सहयोगी 'प्रगति आणि जिनविजय' में उसके सुयोग्य सम्पादक गजपंथक्षेत्र के अधिवेशनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं ! “ दिगम्बर जैन प्रान्तिकसभा के अधिवेशन में एक विदुषी स्त्रीका व्याख्यान होनेवाला था, परन्तु उसे पं धन्नालालजीके आग्रहके कारण आज्ञा नहीं दी गई और इस तरह जैनधर्मपर आया हुआ एक भयंकर संकट टल गया ! नहीं तो भला कितना बड़ा अनर्थ हो गया होता अच्छा हुआ जो पण्डितजीने जैनसमाजको इस संकटसे मुक्त कर दिया ! इस सभा में दूसरा महत्त्वका प्रस्ताव यह हुआ कि विधवाविवाहके अनुकूल लेख लिखनेवाले पत्रोंका निषेध किया जाय ! यह प्रस्ताव भी बहुत दूरदर्शिता का हुआ जैनसमाज में स्त्रियोंकी संख्या कम है । इसके कारण हजारों जैनपुरुषोंको अविवाहित रहना पड़ता है । रहने दो; इससे कुछ हानि नहीं ! इससे पुरुषोंमें अनाचार बढ़ता है । तो भी कुछ हानि नहीं ! इसके कारण विधवाओंमें दुराचार फैलता है । तो भी क्या हुआ ? इस विषयमें कुछ कहना ही न चाहिए । इससे जैनसमाजका हास होता है । होने दो; जो होनेवाला है वह ! Jain Education International होकर रहेगा। इस तरह शंका-समाधान हो जाने पर भी जैनहितैषी आदि पत्र विधवाविवाहके विषय में लेख क्यों प्रकाशित करते हैं? उनका निषेध होना ही चाहिए । जैनमित्र के कथनानुसार तो विधवाविवाहका समर्थन करनेवालों को मौन धारण करना चाहिए। वे आपस में चर्चा करें, गुप्तरूपसे सम्मतियाँ दें अथवा बाला बाला उत्तेजन दें, कुछ हर्ज नहीं; पर दश आदमियों में - सभा - सोसाइटियोंमें इस विषयकी चर्चा करनेकी क्या जरूरत ? ” ९ यज्ञोपवीत और जैनधर्म 1 हितैषी के पिछले संयुक्त अंकमें उक्त विषयका एक लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें हमने लिखा था कि एक दो श्वेताम्बर विद्वानोंसे मालूम हुआ कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के शास्त्रों में भी यज्ञोपवीतकी क्रियाका विधान नहीं है । इसपर सहयोगी 'जैन' के गत २ अप्रैल के अंक में 'सत्याकांक्षी' की सहीसे किसी महाशयने लिखा है कि " श्वेताम्बर - साहित्यमें 'आचार दिनकर' इत्यादि बहुतसे ग्रन्थोंमें यज्ञोपवीतकी क्रियाका लेने की कृपा करें जिससे खुलासा होगा और सहेतुक विवरण है । लेखक महाशय उसमें देख आगामी अंक में अपनी भूल सुधारनेकी कृपा करें। ” इसके उत्तरमें हम श्वेताम्बरसम्प्रदाय एक विद्वान् साधु महाशय के पत्रको प्रकाशित कर देते हैं जिसे उन्होंने हमारी जिज्ञासानिवृत्तिके लिए अभी कुछ ही दिनों पहले भेजा था । साधु महोदय जैनधर्मके और इतिहास के बहुत अच्छे ज्ञाता हैं । इससे यज्ञोपवीतके मूलविषयपर भी बहुत अच्छा प्रकाश पड़ेगा - " यज्ञोपवीतविषयक लेख पढ़ा। मेरे विचारसे यह प्रथा बहुत पुरानी नहीं; ब्राह्मणोंके संसर्गसे मध्यकाल में प्रविष्ट हो गई है । श्वेतांच में जनेऊ पहननेका रिवाज नहीं है । पुराने जमाने में भी पहननेका कोई उल्लेख नहीं मिलता । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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