Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 74
________________ २५० AIImmumI जैनहितैषीfition लोंका काम है और चौथे आपकी आशा है कि जानकर आश्चर्य होता है । मान्यवर ! हमारे समा मैं पहले अंकमें प्रकाशित हुए विधवाविवाहसम्बन्धी जके अगुए और धर्मात्मा कहलानेवाले लोग ऐसी लेखका खंडन करूँ। मैं इन चारों ही बातोंपर नम्रता- गाढ़ निद्रामें सोये हुए पड़े हैं कि उनको जगानेके पूर्वक निवेदन करना चाहता हूँ जिससे आपको मेरे लिए इस तरहकी उत्तेजना फैलानेवाली भयदायक विचारोंका पता लग जाय और आपके पत्रका चर्चा उठाना बहुत आवश्यक है । ऐसी भयंकर उत्तर हो जाय । चर्चाके विना वे जागनेवाले नहीं । विधवाविवाह __ यह बड़े ही आनन्दका विषय है कि धर्मदृष्टिसे बुरा है या भला यह दूसरा प्रश्न है, आपको जैनधर्मकी उन्नतिकी चिन्ता है । सचमुच- इसका विचार आगे होगा; पर इसमें तो कोई संदेह ही आपका यह कर्तव्य होना चाहिए कि जिन नहीं कि लोगोंको भयभीत करके जगानेके लिए विचारों या प्रवृत्तियोंसे समाज या धर्मको हानि इससे अच्छा नुसखा और दूसरा नहीं । भला यह पहुँचती हो, उन सबको रोकनेका उद्योग करते भी कोई जैनधर्मका न्याय है कि पुरुष तो पचास रहें । हितैषीके जिस लेखपर आपको आक्षेप है और पचपन वर्षकी उम्र तक विषय-भोग करते उसके विषयमें तो मैं आगे चलकर विचार करूँगा। हुए भी सन्तुष्ट न होकर बारह वर्षकी नासमझ लड़यहाँ आपका लक्ष्य इस ओर आकर्षित करना चा. कीका जन्म मिट्टी में मिला दें और बारह वर्षकी हता है कि वे विचार जो उक्त लेखमें प्रकट किये अनाथ विधवा इन्द्रियनिग्रह करनेके लिए लाचार गये हैं थोड़ी देरके लिए मान भी लिया जाय कि की जाय ? हम लोग तो ऐशो-आराममें जिन्दगी हानिकारक हैं; परंतु यह भी तो सोचिए कि उनकी बितावे और स्त्रियोंको दुःखके गढ़ेमें ढकेलकर उत्पत्ति किस कारणसे हुई ? मेरी समझमें बालवि- उनकी ओर नजर उठाकर भी न देखें ? इसका वाह, बृद्धविवाह, कन्याविक्रय और विधवाओं नाम क्या धर्म है ? यदि हम सच्चे जैनी हैं और पर होनेवाले अत्याचार, ये ही कारण हैं जिन्होंने जैन-धर्मके गौरवका रक्षण करना चाहते हैं तो हमें विधवाविवाहकी चर्चाको जन्म दिया है । मैं पूछ- बालविवाह, वृद्धविवाह, कन्याविक्रय और छोटी ता हूँ कि विधवाविवाहकी तो चर्चा भी आपको छोटी उपजातियोंका अस्तित्व मिटाना ही पड़ेगा। असह्य मालूम होती है. पर बाल और वद्भविवाह- जबतक य बात न मिटगा तबतक इनस उत्पन्न के कार्य क्यों असह्य मालूम नहीं होते ? उसकी होनेवाला विधवा-विवाहका पाप रुक नहीं सकता। तो चर्चा में भी अधर्म है और इनके प्रत्यक्ष कार्योंमें जबतक पापोंका मूल बना है, तबतक उनका फल भी अधर्म नहीं है ! आप कहेंगे कि इन कार्यामें चखना ही होगा । अतः आप जैसे सच्चे समाज-सेव. अधर्म तो है, पर किया क्या जाय ? लोग माने कों-अग्रेसरोंको चाहिए कि विधवाविवाहकी तब न ? पर यह उत्तर सन्तोष-जनक नहीं है। चर्चाको सुनकर क्रोधित न हों, बल्कि इसकी आवआप जैसे प्रतिष्ठित अगुए यदि चाहें-कमर कस लें श्यकताको खड़ी करनेवाले वृद्धविवाहादि कुकतो ये पाप-प्रवृत्तियाँ अवश्य बन्द हो सकती हैं। र्मोको-कमसे कम अपने अपने प्रान्तोंमें-शीघ्र ही हितैषीमें चर्चा न होने पावे, इसके लिए बन्द करनेकी कोशिश करें, जिससे कि विधवातो आप कटिबद्ध जान पड़ते हैं, पर इस चर्चा के विवाहकी आवश्यकता ही न रहे। जन्मदाता पापकार्योंके रोकनेके लिए-आप समर्थ “अब मैं जैनहितैष के लेखके मुद्देपर आता होते हुए भी कुछ भी उद्योग नहीं करते हैं, यह हूँ । इस विषयमें पहले यह जानना चाहिए कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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