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विविध प्रसङ्ग
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पत्रसम्पादकों का कर्तव्य क्या है ? प्रबल युक्तिवाले और गालीगलौज जिसमें न हो ऐसा कोई भी लेख कोई प्रसिद्ध लेखक भेजे तो सम्पादकको चाहे वह उससे सहमत हो या न हो; लोगों को स्वयं विचार करनेका मौका देनेके लिए उसे अपने पत्रमें अवश्य प्रकाशित करना चाहिए । यही पत्र - सम्पादकों का धर्म है । जिस लेखके विषयमें आप शिकायत करते हैं, वह लेख खास विधवाविवाह के विषय में नहीं है । जैनसमाजकी तमाम परिस्थिति - योंके अनुभवसे उन्नति के मार्गको बतलाना उस लेखका आशय है । स्त्रियोंके सिवाय और भी बहुतसी बातोंकी - शास्त्रोद्धार, ऐक्य, आत्मबलि आदिकी भी उसमें चर्चा है । इन सब चर्चाओं के पढ़नेंसे आपको स्वतः मालूम होजायगा कि लेखक महाशय जैनधर्म और जैनसमाज के सच्चे सेवक, भक्त और शुभेच्छुक हैं । उनके अन्यान्य अनेक लेखों ग्रंथों, और व्याख्यानोंसे मैं परिचित हूँ और उनके निजी वा सार्वजनिक जीवनका भी मुझे बहुत कुछ अनुभव है । मैं कह सकता हूँ कि उनका आशय हमेशा निर्मल और समाजसेवा करने का रहता है । उनकी युक्तियाँ और अनुभव भी विस्तृत है । ऐसे पुरुषके विचारोंको हम अपने पत्र में स्थान न दें तो फिर और किसके विचारोंको स्थान दें ? मुझे भय है कि आपने वह लेख शान्तिसे नहीं पढ़ा, यदि पढ़ा होता तो आपको मालूम होता कि - " उन्होंने पुनर्विवाहको धर्मकार्य नहीं किन्तु पाप ही माना है; इतना ही नहीं, उन्होंने तो प्रथम विवाहको भी धर्म नहीं किन्तु व्यवहार माना है वे अखंड-ब्रह्मचर्य्यको ही धर्म समझते हैं और अखंड-ब्रह्मचर्य्य पालनेवालोंको ही वे पवित्र, उच्चतम जैन और पूज्य ठहराते हैं । परन्तु जिनसे अखंड - ब्रह्मचर्य पालन न हो सके उनके लिए समाजने विवाहकी व्यवस्था की है और उसे धर्मविवाह ठहराया है । इस शुभ हेतुसे कि लोग स्वप
" फिर जो लोग पहली और दूसरी कक्षा के नहीं अर्थात् तीसरी कक्षाके - कनिष्ठ आत्मबल - वाले हैं- या यों कहिए कि जो एकबार विवाहित हो चुकनेपर विधवा या विधुरकी अवस्था में नहीं रह सकते, उनके लिए क्या करना चाहिए ? इस प्रश्नका उत्तर लेखक महाशय अनेक स्थितियोंका विचार करके भिन्न भिन्न स्थितिवाले स्त्री पुरुषों के लिए भिन्न भिन्न रूप से देते हैं । उनकी प्रथम और सर्वोत्तम सलाह तो यह है कि सुयोग्य पुरुष और सुयोग्य स्त्रीका ही विवाह हो, अयोग्य स्त्रीपुरुषको समाज विवाह करने की आज्ञा ही न दे; जिससे कि छोटी उमरमें विधवा होने की संभावना ही न रहे । यदि हजारमें कोई एक दो विधावायें जायँ, तो उनके लिए कोई खास कानून ( विधवाविवाह के समान ) रखने की जरूरत नहीं है । उनका मत है कि जब बहुतसे स्त्री पुरुष पुख्त उमरमें और गृह संसार चलानेकी योग्यता प्राप्त करके विवाह करेंगे तब विवाह ऐसा सुखमय हो जायगा कि स्त्रीको अपने प्यारे पति की मृत्यु के बाद ट
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त्नीसे भी केवल विषयसेवनके ही अभिप्रायसे संबंध न करें । प्रकृतिकी वास्तविक मंशा यह है कि स्त्री पुरुष संभोगके विषयमें मितव्ययी हों और उनमें शारीरिक तथा मानसिक आरोग्य और बलकी वृद्धि हो । इस तरह मितसंभोग के द्वारा संतान भी बलिष्ठ होती है । परन्तु ऐसा उपदेश सुनकर लोग विषयसेवनमें मितव्ययी नहीं हो सकते, यह समझकर विवाहको धर्मविवाह ठहराना पड़ा, ताकि धर्म के डरसे लोग स्वस्त्री सम्बन्ध में भी नियमित रहें और विषय वासनाओं को रोकें ।
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इस तरह लेखक ने
ब्रह्मचर्यको ही धर्म माना है और विवाहको धर्म नहीं; किन्तु व्यवहारकी दृष्टिसे माना हुआ धर्म ठहराया है । इतना ही नहीं परन्तु स्वस्त्री से भी नियमित रहनेका उपदेश दिया है ।
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