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जैनहितैषी। Saritriminititiminilini
मार्ग-बतलाती है वही सच्चा मार्ग है और उससे अनुचित, यह बात तब समझमें आयगी जब समाजका कल्याण हो सकता है । यद्यपि बहुत- इसके करनेमें जो हेतु है वह और इसका करसे उदाहरण ऐसे मिलते हैं जो इस नियमसे ना अनुचित समझनेमें जो सद्धर्म है वह, इन विरुद्ध जाते हैं, परंतु उन्हें अपवाद ही समझ- दोनोंकी तुलना की जायगी। ना चाहिए, और एक तरह वे मूल नियमको ही यद्यपि विवाहका उद्देश्य भरणपोषणरूप सबल करते हैं । एक साधारण उदाहरणसे यह स्वार्थका जान पड़ता है। परन्तु यह देखना बात अच्छी तरह समझमें आ जायगी। धर्मशा- चाहिए कि इस सम्बन्धमें सच्ची पवित्र गाँठ स्त्रोंकी आज्ञा है कि सत्य बोलना ही फलदायक काहेकी है ? स्त्री पोषकशक्तिका स्वरूप है और है,और उसीसे सब सुखोंकी प्राप्ति होती है । जिन पुरुष उत्पादक शक्तिका । पुरुष शरीरबलमें बढ़ा जिन देशोंमें इस तरहका दृढ उपदेश दिया गया चढ़ा है और स्त्री प्रेमवृत्तिमें । प्रेमवृत्तिमें 'पुरुष है वहाँ वहाँ कहना चाहिए कि सद्विद्या और उसकी बराबरी कदापि नहीं कर सकता और सद्विचारोंका ख़ब ही प्रचार हुआ है और इसके यही उसका ऐश्वर्य है जो उसे पूज्य बनाता है । विरूद्ध जिस देशमें सत्य बोलनेके विषयमें पूरा प्राचीन आचार्योने इसी लिए स्त्रियोंकों पूज्य जोर नहीं दिया गया है वह देश अधम स्थिति- कहा हः-- पर पहुँचा हुआ है। परन्तु ऐसा होनेपर भी प्रजनार्थ महाभागाः पूजाहाँ गृहदीप्तयः। क्या आप कह सकते हैं कि जहाँ सत्यका स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन ॥ उपदेश दिया गया है वहाँ कभी असत्यके अर्थात् प्रजाकी उत्पत्ति करनेवाली, महाभाग्यऔर जहाँ सत्यका उपदेश नहीं दिया गया है वाली और इसी कारण पूज्य, घरकी दीपिका वहाँ कभी सत्यके छोटे मोटे उदाहरण नहीं मिल रूप स्त्री और लक्ष्मी इन दोनोंमें कोई भेद नहीं जाते हैं ? परन्तु इससे क्या उन उन देशोंकी है । और भी कहा है :स्थापित रूढिको और उस रूढिके कारण प्राप्त यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । हुई प्रतिष्ठा या अप्रतिष्ठाको हानि पहँच सकती यत्रतास्तु न पूज्यन्ते सार्वस्तत्राफलाः है ? कभी नहीं । इस सारे विवेचनका सारांश
क्रियाः। यह है कि किसी तात्कालिक तीव दुःखके का- अर्थात् जहाँ स्त्रियोंकी पूजा होती है वहाँ रण व्याकुल होकर भले ही हम चाहे जिस मार्ग- देवता निवास करते हैं और जहाँ ये नहीं पुजती को पकड़ लेना उचित समझ लें, तथापि उस विष- वहाँ सारी क्रियायें निष्फल जाती हैं। याज्ञवयका जो मूल सद्रूप है वही सच्चा मार्ग है और ल्क्य ऋषिने भी कहा है:-- उसीके अनुसार चलनेसे संसार सुखमय बनेगा भर्तृमातृपितृज्ञातिश्वश्रुश्वसुरदेवरैः । यह स्वीकार किये विना नहीं चल सकता। बन्धुभिश्च स्त्रियःपूज्या भूषणाच्छानाशनैः।
पुनर्विवाहके सूक्ष्म विषयमें भी उपर्युक्त निय- पति, भाई, पिता, जातिवाले, सास, ससुर, मके अनुसार विचार करना चाहिए । स्त्रीको देवर और बन्धुओंको भूषण वस्त्र और भोजनाअपने पतिके अभावमें और पतिको अपनी स्त्री- दिसे स्त्रियोंकी सेवा करनी चाहिए । स्त्रियोंको के अभावमें फिरसे ब्याह करना उचित है या पूज्य बनानेवाले इस प्रेममय ऐश्वर्यकी पुरुषको
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