Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 94
________________ SHAILEELAMIRMILIATIALAITHLIBARAHIMARA RamummitDEHETI तब विवाहका बन्धन केवल प्रेमग्रन्थिसे होनेके ही है । पुनर्विवाह तो हमारी दुर्वृत्तिके कारण, लिए आवश्यक है कि दोनोंकी उम्र अच्छी हो हमारी दुर्बलताके कारण लाचार होकर ग्रहण (कमसे कम १६ और २५ वर्ष ) दोनों शिक्षि- किया हुआ-क्षमा करने योग्य और सबके त हों, ( वर्तमानमें स्त्रियोंके लिए जिस प्रकारकी सहन करने योग्य मार्ग है । शिक्षी दी जाती है उसकी अपेक्षा जुदे ही प्रकारकी पनर्विवाहको यदि कोई पाप माने, तो इसके शिक्षा उन्हें मिलना चाहिए, जिससे उनकी मान- लिए हम उसका आदर करेंगे । क्योंकि ऐसा सिक और नैतिक शक्तियोंका विकास हो।) माननेमें उसकी सदाद्वि-धर्मवृत्ति कारण है । पऔर दोनोंका विवाह मा बाप या गुरुजनोंकी । रन्तु यदि कोई पुनर्विवाह करनेवालेको दुःख योग्य आज्ञानुसार उन दोनोंकी पसन्दगीक देनेके लिए या उसको जातिबहिष्कृत आदि का द्वारा हुआ हो । इस प्रकारके विवाहको ही सच्चा रनके लिए तैयार हो, तो इसे हम जरा भी सहन प्रेमग्रन्थियुक्त विवाह समझना चाहिए। नहीं कर सकेंगे। जब तुम प्राचीन आर्यधर्मके विवाहका यही स्वरूप हमें मान्य है और इसी सिद्धान्तेकि विरूद्ध दूसरे न जाने कितने आचाकारण हम पुनर्विवाहको बुरा समझते हैं । परन्तु रोंको सहन कर रहे हो, तब इस एकको भी हमारे मित्र कहते हैं कि आप जैसे बतलाते हैं क्यों चुपचाप सहन नहीं कर लेते हो ? परन्तु वैसे विवाह आजकाल नहीं होते हैं । अपने रीति- वे लोग जो इस काममें उचित सहनशीलता रिवाज बिगड़ गये हैं, शिक्षा दी नहीं जाती, प्रकट नहीं कर सकते हैं अर्थात् पुनर्विवाहके बाल्यविवाहका जोर है और पसन्दगीका तो कोई रिवाजसे क्षुब्ध हो जाते हैं, उनकी अपेक्षा वे अभिप्राय भी नहीं समझता है; तब इन सारे लोग और भी अधिक दोषके भागी हैं जो दुष्टाचारोंके दुष्ट परिणामका निवारण कैसे किया पुनर्विवाहादि करनेको ही सच्चे सुधारका शृंगार जाय ? जिन लड़कियोंने अभी विवाहका अर्थ समझते हैं। जो आचार हमें पसन्द हैं उन्हीं भी नहीं सुना समझा है, उन्हें क्या विना अपराध आचारवाले लोगोंको अपने पास रखना और दूसरोंजीवन भर दुःखके गड्ढे ही डाले रखना चाहिए ? को न रखना, इसके लिए तो हर एक अदमी स्वतंत्र जिनके हृदय है, जो पराये दुःखोंका अनुभव कर है, परन्तु प्राचीन सत्सिद्धान्तोंके नष्ट भष्ट करनेका सकते हैं. वे दयाशील सज्जन इसका उत्तर देते किसीको भी अधिकार नहीं है। हमारे सधारक हुए कहते हैं-"विषस्य विषमौषधम्- भाई जितना परिश्रम इस अनिष्ट आचारको प्रविषकी दवा विष ही है। इस दु:खसे मक्त होने- चलित करनेके लिए करते हैं, उतना ही यदि लिए यदि पनर्विवाहकी आवश्यकता है, तो विवाहके वास्तविक स्वरूपको समझानेमें, वि. उसे अपने दुष्टाचारोंका परिणाम समझकर होने वाहके सामाजिक नियमोंमें परिवर्तन करानेमें, दो-उसमें रुकावट मत डालो।" हम भी ऐसे और धर्मकी महत्ता समझानेमें करते तो यह दयार्द्र सज्जनोंका सर्वांशतः अनुमोदन करते हैं; व्यर्थका विवाद कभीका मिट गया होता । पुनपरन्तु साथ ही यह स्मरण रखनेकी प्रार्थना करते विवाहकी रातिको उत्तेजन देते समय वे यह हैं कि हमारा वास्तविक मार्ग तो-जैसा पहले बात भूल जाते हैं कि इस प्रकारके उत्तेजनकहा जा चुका है-विधाह करके वैधव्यधर्म पालना से, वे अव्यवस्थित विवाह भी स्थायी हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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