Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 80
________________ २५६ 1 और न ये सदा इस हालत में रह ही सकते हैं। मैं इस युद्धभूमिपर जो कुछ करता हूँ उसे ईश्वरीय आज्ञा - ईश्वरीय काम समझकर करता हूँ । मेरा दृढ़ निश्वय है कि अपने प्रयत्नमें किसी तरहकी न्यूनता न होने देकर उसे अंतिमसीमा तक पहुँचाऊँगा और जो कुछ संकट आपड़ेंगे उन्हें धीरतापूर्वक सहन करके अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहूँगा । युद्धभूमि पर अगणित कष्ट होते हैं, परन्तु मैं उन्हें कष्ट नहीं गिनता । नीग्रोलोगों को दासत्बसे मुक्त करना-गुलामी से छुड़ाना बहुत उत्तम और पुण्यकर्म है । इस समय वे हमारे साथ हमारे समान ही युद्धभूमि पर लड़ रहे हैं । उनके गुणों को देखकर कौन कह सकता है कि वे गुलामीके योग्य हैं ? मुझे उनके उद्धार के लिए लड़नेका मौका मिला इस कारण मैं अपनेको धन्य समझता हूँ । हम मनुष्यों की मनुष्यता के लिए लड़ रहे हैं । आजके युद्धमें मेरी सेनाके दो नीग्रोभाई काम आये हैं और मैंने उनको सच्चे नागरिकोंके समान बड़े सन्मानसे मिट्टी दी है । जो पहले तुच्छ समझे जाते थे उनको आजमैं बराबरी के नागरिक मानता हूँ । उनको नागरिकों और सिपाहियोंका सन्मान देनेसे उनमें अच्छे अच्छे गुण प्रकट होंगे । इस युद्धके परिणाम पर४०लाख नीम्रो भाइयों की गुलामी या स्वाधीनता अवलंबित है, इस लिए मैं प्राणपनसे लड़ रहा हूँ और इस कामके लिए अपने सर्वस्वकी आहुति देने को तैयार हूँ । परसोंकी बात है नीम्रो लोग युद्धभूमिपर हमला करने जा रहे थे उस समय शत्रु सैन्यकी ओरसे गोलियोंकी मार पड़ रही थी, तो भी जब तक उन्हें सेनापतिकी आज्ञा महीं मिली, तब तक वे रुके नहीं बराबर शत्रुकी ओर बढ़ते गये । न वे पीछे हटे और न किसी प्रकार भयभीत हुए | ये क्या उनके प्रशंसनीय गुण नहीं हैं ? शाबास नीग्रोवीरो ! तुम्हारे इस गुणको देखकर मुझे अतिशय आनंद होता है । " । । जैनहितैषी - Jain Education International उक्त पत्रको पढ़नेसे - जो उन्होंने युद्धक्षेत्र अपने घर भेजा था - कप्तान आर्मस्टाँगके उदार हृदयका पता लग जाता है । कुछ दिनों में युद्ध समाप्त होने का समय आगया । दक्षिण प्रान्तकी सेनाका नायक - ९ अप्रैल सन् १८६३ को शरण आगया और इस तरह इस गृह कलह के समाप्त होनेपर कप्तान आर्मस्टाँगको इस काम से छुट्टी मिल गई। थोड़े ही दिनोंके बाद जब अमेरिकन सरकारने इनके युद्धकौशलको सुनकर इन्हें सेनाविभागमें उच्चपद देने के लिए बुलाया तब आर्मस्टांगने सोचा अब क्या करना चाहिए ? नौकरी करके सुख - शान्तिपूर्वक जीवन बिताना अच्छा है या रूखी-सूखी रोटी खाकर दीन, असहाय और अज्ञानान्धकारमें पड़े हुए लोगों के हितसाधनमें अपने जीवनको उत्ससर्ग करदेना । इस विषयमें उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा है। ""मैं सोच रहा था कि अब कौनसा काम करना चाहिए । मुझे जैसा मैं चाहता था वैसा ही काम मिल गया । इस देशमें दीनों के उद्धार के लिए जो कार्य चल रहे हैं उनमें योग देना ही उचित समझ शक्ति काम आवे तो इससे बढ़कर अच्छा काम और पड़ता है | लोकसेवाके लिए याद मेरी बुद्धि और और इस कामको न करना ईश्वर की आज्ञाका उल्लं क्या हो सकता है ? जनसेवा ईश्वरसेवा ही है, घन करना है - उसके प्रतिकूल चलना है । मैं जनसेबारूपी इस ईश्वरीय आज्ञाको पालन करना सर्वथा उचित और अपना कर्तव्य समझता हूँ । युद्ध में परमेश्वरकी कृपासे बचे हुए इस शरीर को किसी परोपकार या जनसेवाके काममें लगाना ही उचित है । कोरा धर्मोपदेशक होना मुझे पसंद नहीं हैं, क्योंकि उपदेशक होनेकी अपेक्षा किसी अच्छे कामको करना लाख तरह अच्छा है । " जिस समय मनुष्य विचार तरंगों से व्याकुल हो जाता है उस समय वह बहुधा कुछ निश्चय नहीं कर सकता; परन्तु कई बार ऐसा होता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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