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CHITRALIACTICALCOHOLD
विविध प्रसङ्ग।
या
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" संवत् १५०० के आसपास वर्धमानसूरि नामके और समाजोंके रीति-रिवाज जुदा जुदा प्रकारएक आचार्य हो गये हैं । उन्होंने : आचार के हैं । किसी देश और जातिवाले मुर्देको जला
देते हैं, कोई जमीनमें खड्डा खोदकर गाड़ देते दिनकर ' नामका विस्तृत ग्रन्थ गृहस्थोंके
हैं और कोई यों ही जंगल में फेंक आते हैं। आचार विषयमें लिखा है । इस ग्रन्थम अन्यान्य जैनधर्मके सिद्धान्तानुरूप इन सब. जातियों के आचारों के साथ १६ संस्कारोंका भी विधान है । मनुष्य जैनधर्मका आराधन उत्कृष्टतया कर सकते आधुनिक ब्रह्मसमाज और आर्यसमाजने जैसे अप- हैं, तो अब फिर इनके लिए कौन सी रीति ने अपने मन्तव्यानुसार नये ढंगसे संस्कारोंका नियमित की जाय ? जैनदृष्टि से तीनों कृत्य- जला विधान किया है वैसे ये संस्कार भी जैनदृष्टिसे देना, गाड़ देना या फेंक देना-एकसे हैं । जैनधर्म जैनत्व लानेके लिए बिहित किये गये हैं । इन व्यवहारके विषयमें बिल्कुल मौन है । चाहे मुर्दा संस्कारोंमें एक ' उपनयन , संस्कार है जिसमें जलाया जाय, चाहे गड़ाया जाय, वह इस विषयमें जैनधर्मका आराधन करनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और किसी भी विधिको धर्म्य नहीं बतलाता । एसी वैश्यको ‘ जिनोपवीत' देनेका विधान है। ('य- अवस्थामें जैनधर्मसे व्यावहारिक नियम बनाये ज्ञोपवीत ' के स्थानपर 'जिनोपवीत ' नाम रक्खा नहीं जा सकते । जो मनुष्य जिस देश है जो ग्रन्थकारके कौशलका सूचन करता है। ) और जातिका हो वह अपना लौकिक व्यव
" केवल इस एक ग्रन्थके सिवा अन्य किसी हार अपने देशजात्यनुसार चलावे, धर्म उसमें कुछ पुराने या नये ग्रन्थमें न कहीं इस विषयका विधान नहीं कहता । केवल धर्माचरणमें जैनत्वकी आवहै और न कोई उल्लेख ही मिलता है । इस ग्रन्थमें श्यकता है । जैनधर्म केवल 'निवृत्तिमार्गविधायक, विहित विधान आदरणीय है या अनादरणीय,
है प्रवृत्तिका उपदेशक नहीं । हाँ, यह अवश्य वह
, कह देगा कि अमुक प्रवृत्ति अधिक कर्मजनक है इसका जिक्र आजतक किसीने नहीं किया । स्वर्गीय और अमक अल्प पापवाली। श्रीमदात्मारामजी महाराजने, सबसे पहले इन वैदिक धर्मकी दृष्टिमें और जैनधर्मकी दृष्टिमें संस्कारोंका प्रकाशन अपने 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद ' बडा अन्तर है। यह बात हमेशा ध्यानमें रहनी में किया है । इसके बाद कुछ लोगों के विचार इन चाहिए । वैदिक धर्म व्यवहारप्रवृत्तिको भी धर्मके संस्कारोंको प्रचलित करनेके पक्षमें सुनाई देते हैं । साथ संलग्न रखना चाहता है । वह व्यवहार और ___“ इतिहास और तत्त्वकी दृष्टिसे देखा जाय धर्मका अभेद संबन्ध मानता है, इसलिए कुल व्यवतो जैनत्वकी छापवाले व्यवहारोंका अस्तित्व हो हारोंमें वह अपना दखल रखना चाहता है । जैनही नहीं सकता। जैन एक प्रकारका धर्म विशेष धर्मकी यह मानता नहीं । जैनधर्म तो कहता है कि है , समाज या जाति-विशेष नहीं । व्यवहार जितने कर्मजनक सब ही प्रवृत्तियाँ अधर्ममें शामिल हैं। हैं वे सब, समाज और जातिविशेषके साथ सम्बन्ध ऐसी प्रवृत्तियोंका विधान निवृत्तिपरायण जैनधर्म में रखते हैं । जैन-जीवन जगत् मात्रके मनुष्य- कैसे हो सकता है ! इत्यादि बहुत कुछ बातें विचापशुतक भी धारण कर सकते हैं । ऐसी दशामें रने लायक हैं । वर्णाश्रमके विषयमें भी यही हाल व्यावहारिक नियमोंके विषयमें किसी प्रकारका है। मैं अभी मुसाफिरीमें हूँ साथमें किसी भी प्रकास्वतंत्र नियम जैनधर्म नहीं बना सकता; उसका रका साहित्य नहीं है-लिखनेके लिए कागज भी यह कार्य नहीं । जगतकी भिन्न भिन्न जातियों यथेष्ट नहीं है ! .........."
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