Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 68
________________ MARATHIIIII २४४ जैनहितषी ___ आशा है कि सत्याकांक्षी महाशयको इस पत्रसे उमरके युवकोंको मातृ-भाषासे पराङ्मुख होकर सन्तोष हो जायगा और अन्यान्य पाठकोंको पर-भाषा पर इतना मुग्ध होना शोभा नहीं देता। यज्ञोपवीतके मर्मको समझनेमें सहायता मिलेगी। यह बड़ी ही शोकजनक स्थिति है । विदेशी १. महात्मा गाँधी और मातृभाषा। संसर्गके कारण देशमें नवीन युग उपस्थित हुआ हितैषीके पाठकोंको मालम होगा कि 'भारत- सही; पर इसका यह अर्थ नहीं है कि हमें जैनमहामण्डल' के गत दिसम्बरके अधिवेश- अपनी भाषा छोड़कर विदेशी भाषाहीमें अपने नमें हमारे अंगरेजीभक्त भाइयोंने लगभग एक विचार प्रकट करना चाहिए । जिस भाषाको हजार श्रोताओंके सामने-जिनमें अंगरेजी व्याख्यान देनेवालोंके माता-पिता नहीं जानते, जाननेवालोंकी संख्या मुश्किलसे १०० होगी- जिसको उनके बहन-भाई नहीं समझ सकते और अपने विचार अँगरेजीमें प्रकट किये थे। एक जिसको उनके स्त्री-पुत्र तथा नौकर-चाकर नहीं दिनकी तो सारी कार्रवाई अँगरेजीहीमें की गई समझ सकते, उसका सेवन करनेसे नवीन युग थी और उस समय थोडेसे इने गिने लोगोंको समीप आयेगा कि दूर चला जायगा, इसपर छोड़कर शेष सभी उनका मुँह ताकते रहे थे। उनको अवश्य विचार करना चाहिए । कितने ही ठीक यही हाल संगामपुर-सरतकी एक सभामें मनुष्योंका ख्याल है कि अँगरेजी अब हमारी भी हुआ। महात्मा गाँधीके हाथसे वहाँ एक मातृ-भाषा है । परन्तु यह ख्याल मुझे ठीक नहीं जैनपुस्तकालय खोला जानेवाला था । और इस- मालूम पड़ता । यदि अँगरेजी जाननेवाले के लिए एक सभा की गई थी । यद्यपि उस मुट्ठीभर लोगोंको हम 'देश' मानलें तो यह सभामें भी अधिकांश श्रोता अँगरेजीसे अनभिज्ञ कहना पड़ेगा कि 'देश' शब्दका ठीक अर्थ ही थे, तो भी कुछ जैनविद्यार्थियोंका जी नहीं हमने नहीं समझा । मेरा तो यह माना-उन्होंने अपने विचार अँगरेजीमें ही प्रकट सिद्धान्त है कि ३२ करोड़ मनुष्योंका करना उचित समझा । जब उनके अँगरेजी अँगरेजी सीखना और अँगरेजीका देशभाषा व्याख्यान हो चुके तब माहात्मा गाँधीने अनेक होजाना नितान्त असम्भव है। जिन नव-युवउपदेश देते हुए जो कुछ कहा उसे हम 'सर- कोंने नई विद्या सीखी है और जिन्होंने नये स्वती । से यहाँ उद्धृत कर देते हैं । हम आशा विचारोंसे लाभ उठाया है, उनको अपने विचार करते हैं कि मण्डलके सभासद महात्मा गाँधीके अपने देशभाइयोंपर अवश्य प्रकट करना चाबहुमूल्य शब्दोंपर ध्यान देनेकी कृपा करेंगेः- हिए। यह बात अपनी ही भाषाद्वारा हो सकती __“ यह अत्यन्त आश्चर्यका विषय है कि है । जो युवक यह कहते हैं कि हम अपने अंग्रेजीमें व्याख्यान देनेवाले विद्यार्थी इतना भी विचार मातृभाषाद्वारा नहीं प्रकट कर सकते विचार नहीं करते कि जिनके सन्मुख वे बोल उनसे मैं यही निवेदन करूँगा कि आप मातृरहे हैं वे उनका व्याख्यान समझ सकेंगे या भूमिके लिए भाररूप हैं । मातृ-भाषाकी अपूर्णता नहीं । वे नहीं सोचते कि यहाँपर जो अँगरेजी दूर करनेके बदले उसका अनादर करना-उससे समझनेवाले उपस्थित हैं वे इस त्रुटिपूर्ण अशु- हाथ ही घो बैठना-किसी सच्चे सपूतको द्ध अँगरेजी-भाषासे आनन्द प्राप्त करेंगे, या शोभादायक नहीं । वर्तमान जनसमुदाय उनके हृदयमें अरुचि उत्पन्न होगी । चढ़ती मातृ-भाषाकी उन्नतिके विषयमें चुप रहेगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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