Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 34
________________ २१० जनहितैषी HTTEminimit किसी बातके दोषोंको देख लेना जितना सहज कृपासे इस विषयमें हमने खूब उन्नति कर ली है, उतना उन दोषोंका प्रतिकार करनेवाले है। जो कुछ बाकी है धीरे धीरे और भी पूरी उपायोंको बता देना सहज नहीं है । हमें एक होजायगी; परंतु अब सिर्फ नौकरकेि लिए ही बात यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि वस्तुके शिक्षा प्राप्त करनेका समय नहीं है । शिक्षाका गुण और दोषोंकी सच्ची आलोचना बिना विस्तार भी अब इतना होगया है कि सब उसकी परीक्षा किये नहीं हो सकती । समाज- शिक्षितोंको सरकारी नौकरी मिल जाना भी सुधारका क्षेत्र इतना विस्तीर्ण है कि इसमें संभव नहीं । इस बातको भी सब लोग मानते सहसा उतावली करके किसी कार्यको कर हैं कि शिक्षित मनुष्योंका बेकार बैठना अच्छा डालना अच्छा नहीं हो सकता । गिरते-पड़ते, नहीं । भूखे बैठे किसीसे रहा नहीं जा सकता। उठते-बैठते, साहसपूर्वक आशाके सहारे चलते कहावत है कि निठल्ले मनुष्यके हृदयमें शैताचलते उन्नतिका शिखर ही प्राप्त होता है। नका निवास होता है । समाजका उपकार इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान प्रणालीमें करनेके बदले ऐसे लोग अक्सर उसे बड़ा कई बड़े बड़े दोष हैं; परंतु नवीन प्रणाली नुकसान पहुंचाते हैं । इस कठिन समस्याका कैसी होनी चाहिए इस विषयमें भी तो बड़ा कोई न कोई उपाय अवश्य ढूँढ़ना चाहिए । मतानैक्य है । एक ओर वर्तमान प्रणालीके अब ऐसा समय नहीं है कि इस विषयकी पृष्ठपोषक अधिकांश इसीको कायम रखकर उपेक्षा की जाय। जहाँ तहाँ कुछ कुछ रद्दोबदल करनेसे ही शिक्षित युवाओंको रोजगार किस भाँति संतुष्ट हैं, दूसरी ओर कई लोग प्रचलित पद्ध- मिले-ऐसी शिक्षाकी व्यवस्था क्योंकर की जाय तिका नये सिरेसे संस्कार करना आवश्यक कि स्कूल और कालेजोंसे निकलकर हमारे समझते हैं । मतानैक्य होना तो कोई बुरी युवाओंको नौकरी के लिए भटकना न पड़े, यही बात नहीं है; परंतु विषयके महत्त्वको देखकर प्रश्न हमारे सामने उपस्थित है। कई लोग इसको जहाँ तक हो सुधार इस भाँति किया जाय कि हल करनेका एक विचित्र ही उपाय बताते हैं। जिसमें पैसे और परिश्रमकी बचतके साथ ही वे कहते हैं कि हर साल सरकारी नौकरकिी साथ आधिकसे अधिक लाभ मिल सके। जगहें कितनी खाली होती हैं यह गिन लो-अपने वर्तमान प्रणालीमें क्या क्या दोष हैं ? स्कूल कालेजोंमें उसी प्रमाणसे विद्यार्थियोंकी पहला और सबसे भारी तो यही है कि स्कूलों संख्या रखलो अथवा कुछ नहीं तो परीक्षाओंको और कालेजोंसे निकले हुए विद्यार्थी सिर्फ सख्त कर दो-ऐसा करनेसे काम हो जायगा। नौकरी पर ही अवलम्बित रहते हैं । कारण विद्यार्थी उतने ही पास होसकें जितने नौकरी इसका यह है कि उन्हें ऐसी कोई कला अथवा पा सकते हैं, पर यह उपाय कोई अच्छा उपाय उद्योग नहीं सिखाया जाता जिससे कि उनमें नहीं है। हम पछते हैं. भलावे विद्यार्थी जो कई बार स्वावलम्जनका नाना बढ़ इतन तन्दन नही लगाकर पर मान जान ता रोजगार कन! नौकरियाँ करके राज्यप्रबन्ध-सम्बन्धी शिक्षा थियोंको भर्ती करेंगे ही नहीं, तो कहना होगा प्राप्त करनेकी आवश्यकता थी; परन्तु सरकारकी कि यह असंभव है। शिक्षा एक ऐसी मिठाई है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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