Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 39
________________ HAMARITALIATIMILAIMI LAIMIRDS महाकवि वीरनन्दि। timirmittinimurnimmitmntAINS २१५ पूर्वके अनेक ग्रन्थकर्ताओंका स्तवन करते हुए धारक इन्द्रनन्दि गुरुको नमस्कार करो लिखा है: ॥८९६॥ जिनके चरणोंके प्रसादसे वीरनन्दि और चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्त संसारसे पार हुए उन रसपुष्टा मनः प्रियम् । श्री अभयनन्दि गुरुको नमस्कार करता हूँ।।४३६।। कुमुद्वतीव नो धत्ते ___इन गाथाओंमें इन्द्रनन्दि वीरनन्दि और भारती वीरनन्दिनः ॥ ३०॥ अभयनन्दि इन आचार्योंका उल्लेख है और इस श्लोकमें महाकवि वीरनन्दिके चन्द्रप्रभ- अन्तिम गाथासे मालूम होता है कि इन्द्रनन्दि चरितका स्पष्ट उल्लेख है। इससे मालूम होता है और वीरनन्दि ये दोनों अभयनन्दिके शिष्य कि चन्द्रप्रभकाव्य पार्श्वनाथकाव्यकी रचनाके थे । इन्द्रनन्दिको नेमिचन्द्रने अपने गुरुके समयसे अर्थात् शक संवत् ९४७ से पहले रूपमें स्मरण किया है और साथ ही वीरनबना है। . न्दिको भी जगह जगह नमस्कार किया है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने इससे भी जान पड़ता है कि वीरनन्दि और गोम्मटसार ग्रन्थमें नीचे लिखी गाथायें कही हैं:- इन्द्रनन्दि ये दोनों अभयनन्दि गुरुके सहाध्यायी णमिऊण अभयणादि शिष्य होंगे। सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं । चन्द्रप्रभके कर्ता अपनेको भी अभयनन्दिका वरवीरणंदिणाहं शिष्य बतलाते हैं, इससे जान पड़ता है कि पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥७८५ ॥ नेमिचन्द्रने जिन वीरनन्दिका स्मरण किया है वे ही चन्द्रप्रभकाव्यके कर्ता हैं। -कर्मकाण्ड, अ०६। गोम्मटसार-कर्मकाण्डमें ३९६ नम्बरकी एक णमह गुणरयणभूसण गाथा इस प्रकार है:सिद्धतामियमहब्धिभवभावं। . वरइंदणंदिगुरुणो वरवीरणदिचंदं पासे सोऊण सयलसिद्धतं । णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥ ८९६ ॥ सिरिकणयणंदिगुरुणा -कर्मकाण्ड, अ०८ सत्तहाणं समुदिहं॥ जस्स य पायपसाएण-णंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। अर्थात्-श्रीकनकनन्दिगुरुने इन्द्रनंदिगुरुके वीरिंदणंदिवच्छो पास सारे सिद्धान्तको सुनकर सत्त्वस्थानका कथन किया। णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥ ४३६ ॥ ___ इसमें जिन कनकनन्दिका उल्लेख है, वे कर्मकाण्ड, अ० ४। संभवतः वे ही हैं जिनका वर्णन श्रवणबेल्गोलके अर्थात्-अभयनन्दिको, शास्त्रसमुद्रके पार ४७ वें शिलालेखमें है । शिलालेखमें लिखा है पहुँचे हुए इन्द्रनन्दि गुरुको और वीरनन्दि कि गुणनन्दि आचार्यके ३०० शिष्य थे, उनमें नाथको नमस्कार करके प्रकृति-प्रत्यय अध्यायको ७२ शिष्य बहुत ही बड़े सिद्धान्तशास्त्री थे और कहता हूँ ॥७८५ ॥ हे गुणरूप रत्नोंके भूषण उन सबमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे अधिक चामुण्डराय ! सिद्धान्तरूप अमृतसमुद्रके बढ़ाने- प्रसिद्ध थे । इन देवेन्द्र मुनिके शिष्य कलधौतवाले वीरनन्दि चन्द्रमाको और निर्मल गुणोंके नन्दि या कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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