Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 38
________________ २१४ सदग्रणीर्देशिगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ १ ॥ गुणग्रामाम्भोधेः सुकृतवसतेोमंत्रमहसामसाध्यं यस्यासीन्न किमपि महीशासितुरिव । स तच्छिष्यो ज्येष्ठः शिशिरकरसौम्यः समभवप्रविख्यातो नाम्ना विबुधगुणनन्दीति भुवने ॥ २ ॥ मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः सकलगुणसमृद्ध स्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । अभवदभयनन्दी जैनहितैषी - जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धु भव्यलोकैकबन्धुः ॥ ३॥ भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते र्भास्वत्समानत्विषः शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् । स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्त्तः सतां संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काङ्कुशाः ॥ ४ ॥ अर्थात् भव्यजनरूपी कमलोंको प्रफुल्लितहर्षित करनेवाले मुनिसंघके स्वामी, गणधरकी तरह ज्ञानवान्, सज्जनोंमें श्रेष्ठताका मान पाये हुए, देशिगण में प्रधान माने-जाने वाले और गुणकी खान ऐसे श्रीगुणनन्दि नामके एक आचार्य हुए। उन गुणसमुद्र सुकृतके स्थान गुणनन्दि आचार्य के लिए - राजाको जैसे कोई बात असाध्य या कठिन नहीं होती - कुछ कठिन Jain Education International न था । इन गुणनन्दिके प्रधान शिष्य दूसरे गुणनन्दि हुए, जो चन्द्रमाके समान शान्त - स्वभाव और पृथ्वीमें प्रसिद्ध थे । जिनके चरणोंको मुनिजन नमस्कार करते हैं, मिथ्यावाद जिन्होंने नष्ट कर दिया है, जो सब श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त हैं, जैनधर्मका प्रभाव बढ़ानेवाले हैं, जिन्होंने अपनी गंभीरतारूप महिमासे समुको जीत लिया है और जो भव्यजनोंके एकमात्र बन्धु - हितकर्त्ता थे ऐसे अभयनन्दि मुनि उन दूसरे गुणनन्दि आचार्यके शिष्य हुए । उन भव्यजनरूपी कमलोंको विकसित - आनन्दित करनेवाले, सूर्य के समान तेजस्वी और गुणोंके धारी बुद्धिमान अभयनन्दि आचार्यके शिष्य वीरनन्दी हुए, जिन्होंने सम्पूर्ण वाङ्मयको अपने अधीन कर लिया था -जो अपनी रचना में अपनी इच्छा के अनुसार अर्थगाम्भीर्य, शब्द-सौन्दर्य आदि गुण ला सकते थे और जिनकी कीर्ति संसारमें प्रख्यात थी उन वीरनन्दिके वचन कुतर्कका नाश करनेको अंकुश ́ समान थे । सभाओं में उन्हीं के वचनोंकी विजय होती थी । अपने विषयमें उन्होंने इससे अधिक परिचय देनेकी आवश्यकता नहीं समझी। परन्तु आजकलके पाठक एक प्रसिद्ध महाकविके सम्बन्धमें इतनेसे सन्तुष्ट नहीं हो सकते । उन्हें अधिक नहीं तो कमसे कम इतना तो अवश्य मालूम हो जाना चाहिए कि वे किस समय हुए हैं । एकीभाव-स्तोत्र के कर्ता महाकवि वादिराज - सूरने अपना पार्श्वनाथ काव्य शक संवत् ९४७ * बनाया है । इसके प्रारंभ में रचयिताने * शाकाब्दे नगवार्धिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने, मासे कार्तिकनानि बुद्धिमहिते शुद्धे तृतीयादिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमतीं जैनी कथेयं मया, निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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