Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 37
________________ वह क्यों न निराश हो? TRITTRINTERNATIO NAL २१३ शिक्षाका विषय बहुत ही गहन है । इस विषयमें वर्षों तक लगातार विचार करनेकी आवश्य- महाकवि वीरनन्दि ।। कता है । इसके विचारके लिए प्रत्येक ग्राममें एक एक शिक्षा समितिका होना आवश्यक है। इन सभाओंमें ग्रामके सभ्य इकठे होकर शिक्षा ___ मूलसंघ अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदायकी चार शाखायें हैं-नन्दि, सिंह, सेन और देव । इन विषयक बातोंकी आलोचना किया करें । सरकारने इसी अभिप्रायसे प्रत्येक स्कूलमें एक एक .. शाखाओंकी भी प्रतिशाखायें हैं जो गण, गच्छ बोर्ड स्थापित किया है । दुखका विषय है कि आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं । नन्दिसंघमें जो कई सरकारकी इस मंशाका लाभ हम न उठावें । गण गच्छादि हैं, उनमें से एक 'देशीय ' गण ' भी है। चन्द्रप्रभकाव्यके कर्त्ता महामना वीरनन्दि शहरोंमें तो इस प्रकारकी सभायें अवश्य ही होना चाहिए । ऐसी सभाओंका प्रचार होनेसे , ' इसी देशीय गणमें हुए हैं । ग्रन्थके अन्तमें " उन्होंने जो अपना थोड़ासा परिचय दिया है माता पिताओंकी शिक्षाके विषयमें रुचि बढ़ेगी। - उससे मालूम होता है कि वे आचार्य अभयन___ लड़कियोंकी शिक्षाके विषयमें हमें बहुत कुछ करनेकी आवश्यकता है। जब तक मातायें । ' न्दिके शिष्य थे और अभयनन्दिके गुरुका सुशिक्षित न होगी तब तक देश और समाजका । P L नाम गुणनन्दि तथा दादा-गुरुका नाम भी कल्याण न होगा। आनन्दका विषय है कि इस गुणनान्द था। विषयमें अब हम सचेत हो चले हैं; परंतु सच बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पूछो तो हमने आज तक कुछ भी उन्नति नहीं पतिर्मुनीनां गणभृत्समानः । की है । याद सैकड़े पीछे हम एक या दो पुत्रियोंको शिक्षित कर सके तो मानना होगा कि हमने ना होगा कि हमने १ जैनसिद्धान्तभास्करकी चौथी किरणमें देशीअभी तक भरे हुए समुद्र में सिर्फ मन दो मन शक्कर यगणको देवसंघका गण बतलाया है; परन्तु बाहुबही डाली है । परन्तु याद रहे कि शिक्षाकी लिचरितके निम्न श्लोकसे मालूम होता है कि वह जरूरतको जब तक हम पूरी न करेंगे, उन्नतिके नन्दिसंघका ही भेद या नामान्तर थाःलिए चिल्लाना मानो सघन जंगलमें रोना ही है। पूर्व जैनमतागमाब्धिविधुवSTARRANTARRARastar चीनन्दिसंघऽभव न्सुज्ञानर्द्धितपोधनाः वह क्यों न निराश हो ? कुवलयानन्दा मयूखा इव । Kuuuuuuuuuu सत्संघे भुवि देशदेशनिकरे ले-बाबू जुगल किशोरजी, मुख्तार । श्रीसुप्रसिद्ध सति प्रबल धैर्य नहीं जिस पास हो, श्रीदेशीयगणो द्वितीयविलसन् नाम्ना मिथः कथ्यते ॥ ८७ ॥ हृदयमें न विवेक-निवास हो। २ छपी हुई, और दो हस्तलिखित प्रतियोंमें भी गुणनन्दिके गुरुका नाम गुणनान्द ही लिखा है। जगतमें वह क्यों न निराश हो ? मालूम नहीं यह कहाँ तक ठीक है. कुछ पाठान्तर न हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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