Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ MAHARITAMILLIMATRIMALAIME इतिहास-प्रसंग । १९५ (३६) पालनेवाले थे और जिनका विशाखाचार्यनेमिचन्द्रसंहिता ( प्रतिष्ठातिलक ) । ने आदर किया था । यथाः जैनसमाजमें, यद्यपि नेमिचंद्र' पुराकृतयुगस्यादानामके अनेक विद्वान्, आचार्य और भट्टारक वादिब्रह्मतनूभवः । हो गये हैं; परन्तु · गोम्मटसार' के कर्ता अन्त्यब्रह्मा स भरतो यानेमिचंद्रसिद्धान्त चक्रवर्तीका नाम सबसे समृज्य द्विजोत्तमान् ॥१॥ अधिक प्रसिद्ध है। इस प्रसिद्धि और नामसा- तेषु केचिदथात्यक्तम्यके कारण बहुतसे लोग — नेमिचंद्र' नामके जिनमार्गाविवेकिनः। दूसरे विद्वानोंके बनाये हुए कुछ ग्रंथोंको अविच्छिन्नान्वयाचारगोम्मटसारके कर्ताके ही बनाये हुए समझने परावत्तिरे द्विजाः॥२॥ लगे हैं । अनेक विद्वानोंको भी इस विषयमें तदन्वयभवाः केचिभ्रम हुआ है । नेमिचंद्रसहिता, जिसका कांची नामा महापुरे । दूसरा नाम 'प्रतिष्ठातिलक' है और जिसको त्रिपंचाशतक्रियानिष्ठा'नेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठ ' भी कहते हैं, स्तस्थुः षट्कर्मकर्मठाः ॥ ३ ॥ उन्हीं ग्रंथोंमेंसे एक है जो गोम्मटसारके तान् किलाद्रियतेस्मायोकर्तीके बनाये हुए समझे जाते हैं । इस ग्रंथकी विशाखाचार्यपुंगवः । एक पुरानी प्रति ताड़पत्रोंपर लिखी हुई श्रवण- उपासकमहावेदबेलगोलके पं० दौर्बलि शास्त्रीके भंडारमें रहस्यायुपदेशिनः ॥४॥ मौजूद है। उसके अन्तमें ' शास्त्रावतार' इसके आगे ( पद्य नं० १५ तक ) नामकी एक ४५ पद्योंकी प्रशस्ति है, जिसमें उन्हीं ब्राह्मणोंकी संतानमें अकलंक, इन्द्र. ग्रंथकर्ता नेमिचंद्रने अपने कुलादिकका नन्दि, अनंतवीर्य, वीरसेन, जिनसेन, अच्छा परिचय दिया है। इस प्रशस्तिको वादीभसिंह, वादिराज और हस्तिमल्ल देखनेसे साफ मालूम होता है कि यह ग्रंथ आदि अनेक विद्वानोंके अवतार लेनेका कथन गोम्मटसारके कर्ताका बनाया हुआ नहीं किया है और फिर इन विद्वानोंकी वंशपहै बल्कि इसके बनानेवाले : नेमिचंद्र, , रंपरामें अपने कुटुम्बका सिलसिला बतलाया मुनि न होकर, एक बहुकुटुम्बी गृहस्थ थे। है, जो इस प्रकार है:प्रशस्तिके आदिमें, ब्राह्मण कुलकी प्राचीन- 'लोकपाल' नामके एक ब्राह्मण हुए हैं ताको दिखलाते हुए यह प्रगट किया गया है जो 'गृहस्थाचार्य' कहलाते थे, चोल राजाके कि इस कुलके कुछ ब्राह्मण कांची नामके द्वारा पूजित थे और इस राजाके साथ अपने महानगरमें हुए हैं, जो ५३ क्रियाओंको बन्धुवर्गसहित कर्णाटक देशको चले गये थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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