Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 13
________________ ARMAHARITALIRITUTIHALILAULACHILIORAILABORATHAALAIMERIA जैनधर्म और जैनजातिके भविष्यपर एक दृष्टि। •iffiftytithilitt liftifif tinfrintimYTHIMBS १८९ कर रहे हैं वे जैनधर्मको नाश करडालनेका नोट-यह जैनजातिकी संख्याके घटनेका विषय उपाय कर रहे हैं, इत्यादिः किन्त सधारकको बहुत ही महत्त्वका है-यह हमारे जीवन-मरणका यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसा शोर प्रश्न है । यदि हमने इस प्रश्नको हल कर लियाकेवल संकीर्णहृदय मनुष्य ही मचावेंगे-जिन्हें : संख्या ह्रासके यथार्थ कारणोंको जान लिया और हम ये सब बातें कुछ भी समझमें नहीं आतीं। उनके दूर करनेके उपाय प्रचलित कर सके, तो समझ लीजिए कि हम संसारमें जीते रहेंगे, नहीं तो बस कूच समझिए । अतः जैनसमाजके प्रत्येक हितैषीका उन्हें घृणाकी दृष्टिसे देखेगी, किन्तु इसमें यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह इस विषयपर विचार सन्देह नहीं कि इस प्राचीन धर्मको बहत करे और यथार्थ कारणोंको हूँढ़े । इस विषयमें सहार। मिलेगा । नाशसे वह अवश्य बच किसीको भी सन्देह नहीं हो सकता है कि संख्या जायगा और इस कारण सब विचारशील घट रही है; पर किन कारणोंसें घट रही है, इस विषयमें मतभेद हो सकता है। संभव है कि लेखक मनुष्य इसे पसंद करेंगे। जैनधर्म अपने महाशयके बतलाये हुए कारण और उनके दूर करनेके अनयायी यवकोंकी ओर आशाकी दृष्टिसे उपाय सर्वसम्मत न हों, ऐसी दशामें विरुद्ध मत देखता है। वे ही उसे नाशसे बचाकर रखनेवालों को दूसरे कारण और उपाय बतलाना जैनोंको अन्य भारतवासियोंके बराबरीके चाहिए-चुप होकर बैठ रहना ठीक नहीं है। बना सकते हैं । किन्तु जैन जाति जिस जुदा जुदा प्रान्तोंमें संख्याका हास जुदा जुदा प्रकार युवकोंके साहसको तोड रही है, जिस परिमाणमें हुआ है, अतः प्रत्येक प्रान्तकी और उस प्रकार वह सब उन्नतिके विचारों का हास्य प्रान्तमें बसनेवाली प्रत्येक जातिकी घटी आदिके कारणोंपर भी विचार करनेकी जरूरत है। लेखमें करती है और जिस प्रकार नेतागण स्वाभा - बतलाई हुई प्रान्तवार घटीके अंकोंसे मालूम होता विक अकर्मण्यतामें फँस कर इस ओर है कि सबसे अधिक संख्या दिगम्बर जैनोंकी घटी • ध्यान नहीं दे रहे हैं, इससे तो यही ज्ञात होगी। मध्य प्रदेशमें फी सदी २२ और ग्वालियर होता है कि भविष्य कुछ अच्छा नहीं है। राज्यमें फी सदी २६ घटी हुई है और इन प्रान्तोंमें यदि जैनधर्म जीवित रहेगा, यदि जैन लोग श्वेताम्बरसम्प्रदायक लोग बहुत ही कम-प्रायः चाहते हैं कि हम जीवित रहें, तो उन्हें साहस नहीं के बराबर-हैं । इसी प्रकार युक्तप्रान्तमें भी अधिकांश बस्ती दिगम्बरियोंकी है और वहाँ फी सदी पूर्वक निर्भयतासे कार्य करना होगा। मृत्युसे । १०.५ की कमी हुई है ! अतः यह भी एक विचारणीय बात है कि दिगम्बरियोंकी संख्याका हास ही क्यों अधिक हुआ? यह उक्त प्रान्तोंकी अवलम्बन किया जाय-संसारमें अन्य जाति- विशेषता है या हमारी जातियोंके रीति-रिवाजोंकी ? योंने कैसे उन्नति की है उससे कुछ शिक्षा दिगम्बरसम्प्रदायके विद्वानोंको शायद श्वेताम्बरोंकी ग्रहण की जाय। आशा की जाती है कि जैन- चिन्ता न हो, पर जब उन्हींका सम्प्रदाय घट रहा जाति इस प्रश्नको हँसी खेल न समझकर इस है, तब तो उन्हें इस ओर अपनी बुद्धिको लगाना ओर कुछ ध्यान देगी और उपर्युक्त मार्गका चाहिए । अवलम्बन करनेमें हिचकिचाहट न दिखलावेगी। -सम्पादक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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