Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 16
________________ इतिहास-प्रसङ्ग । ले०, श्रीयुत-बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार । (३३) हुए लिखा है कि-" इति वसुनान्दसैद्धावसुनन्दिका समय। न्तिमतेन दर्शनप्रतिपायां प्रतिपन्नस्त· वसुनन्दि ' नामके अनेक आचार्य और स्येदं । तन्मतेनैव व्रतप्रतिमां बिभ्रतो भट्टारक होगये हैं जिन सबका समय अभी- ब्रह्माणुव्रतं स्यात्तद्यथा- पव्वेसुः इत्थितक प्रायः अनिश्चत है । जैनसमाजमें इस सेवा ...।' इस तरह पर पं० आशाधरनामके ग्रंथकार या ग्रंथकारोंके बनाये हुए जीके द्वारा वसुनन्द्याचार्य और उनके जो ग्रंथ प्रचलित हैं उनमेसे वसुनन्दिश्राव- श्रावकाचार दोनोंका उलेख किया जाता है । काचार, प्रतिष्ठासारसंग्रह ( वसुनन्दि- । प्रतिष्ठासारसंग्रहके कर्ता वसुनन्दिका संहिता ), मूलाचारकी आचारवृत्ति और ही र भी उल्लेख पं० आशाधरने अपने जिनयज्ञआप्तमीमांसाकी · देवागमवृत्ति । नामके , ग्रंथोंको देखनेका मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। . कल्प' नामके प्रतिष्ठापाठमें किया है, इन चारों ग्रंथोंमे ग्रंथोंके बननेका कोई सन् संवत् । - जो इस प्रकार है:नहीं दिया और न · वसुनन्दिश्रावकाचार' को ___जयाद्यष्टदलान्येके कर्णिकवलयादहिः। छोड़कर अन्य तीन ग्रंथोंमें ग्रंथकारने अपनी गुरु-परम्पराका ही उल्लेख किया है । इससे मन्यन्ते वसुनन्धुक्तबिना किसी विशेष अनुसंधानके, अभी यह मूत्रज्ञेस्तदुपेक्ष्यते ॥१७४॥ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ये अथात्-कोई ऐसा मानते हैं कि कचारों ग्रंथ एक ही 'वसुनन्दि ' के बनाये र्णिकाके वलयसे बाहर जयादि अष्ट देवताहुए हैं या एकसे अधिकके । परन्तु इतना ओंके अष्ट दल बनाने चाहिए । परन्तु जरूर कहा जा सकता है कि ' श्रावकाचार । वसुनन्द्याचार्यके कहे हुए प्रतिष्ठा-सिद्धाके कर्ता वसुनन्दि ५० आशाधरसे पहले न्तको जाननेवाले विद्वान् उसकी उपेक्षा हो चुके हैं, क्योंकि पं० आशाधरने करते हैं-वैसा नहीं मानते । स्वयं पं० अपनी 'सागारधर्मामृत' की टीकामें, जो आशाधरने भी वसुनन्दिसंहिताके अनुकि विक्रमसंवत् १२५६ में बनकर समाप्त सार ही वेदिलेखनका विधान किया है और हुई है, वसुनन्दिश्रावकाचारकी ‘पंचुंबर. कर्णिकाके वलयके बाहर क्रमशः १६, २४ सहियाई....', इस गाथाका उल्लेख करते और ३२ दलोंके बनानेकी आज्ञा की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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