Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 11
________________ 'जैन-अन्य संग्रह। . अद्य सौम्या ग्रहाः सर्वे शुभाश्चैकादशस्थिताः। . नष्टानि विधजालानि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥६॥ मद्य नहो महाबन्धः कर्मणां दुखदायकः । सुखसङ्ग समापनो जिनेन्द्र तव दर्शनातू 100 . अद्य कर्माष्टकं नष्टं दुःखोत्पादनकारकम् । सुखाम्भोधिनिमयोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ मद्य मिध्यान्धकारस्य इन्ता मानदिवाकरः। उदितो मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्र तव दर्शनादा भद्याहं मुछती भूतो निताशेषकल्मषः । भुवनत्रयपूज्योऽहं जिनेद तव दर्शनात् ॥१०॥ चिन्दानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥१९॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। . : तस्मात्कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ १२॥ नहि त्राता न हि त्राता न हि त्राता जाये। वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥ १३॥ जिने भक्तिर्जिने भकिर्जिने भक्तिर्दिने दिने। : सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥१४॥ . . जिनधर्मविनिर्मुकम् मा भवन चक्रवर्त्यपि। ' स्यांवेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितम् ॥ १५॥ : पगढ पोसवर गाहांग मनस्वार बरला पाविस्कार पवाद प्रण के लिये पावल पड़ाना तो दोनो सिसा सोच त्याच पड़कर पड़ावे. अपारसंसारमहासमुद्रप्रोचारणे प्राज्यतरीम्सुमक्त्या। दीर्धाक्षताधवलासंताधैर् जिनेन्द्र सिद्धान्तयतीन यजेऽहम् ॥

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