Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 25
________________ जैन-प्रत्य-संग्रह। - जे जे बस्तु लशत हैं तुझ पर, तिनसे नेह निवारो। परगतिमें ये साथ न चालें, ऐसो भाव विचारो॥ नो परभवमें संग चले तुझ, तिनसे प्रीति सुकोजे । पंच पाप तज समता धारी, दान चार विध वीजारा दशरक्षणमय धर्म धरोज, अनुकम्पा चित लावो। पौड़श कारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावना भावो। चारों परवी प्रोपध कीजे, अशन रातिको त्यागो। समता घर दुरभाव निवारो, संयमसूअनुरागो ॥२७॥ गन्तलमयमें ये शुभ भावहि, होवें आनि सहाई । स्वर्ग मेक्षिफल तैहि दिखावें, ऋद्धि देय अधिकाई ॥ सोटे भाव सफल जिय त्यागो, उरमें समता लाके। जाखेती गति चार दूर फर, यसो मोक्षपुर जाले ॥२॥ मन थिरता करो तुम चितो, ची आराधन भाई। .येही तोको सुखफी दाता, और हितू को नाई। आगे पदु मुनिराज भयें हैं तिन नहि थिरता भारी। याहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥२॥ तिनमें कछुक नामकई मैलो सुन जिय! चित लाके। मापसहित अनुमोद तामें, दुर्गति हाय न जाके। अरु समता निज उरमें भाव, भाव अधीरज जाये। यो निशदिन जो उन मुनिवरको, ध्यान हिये विचलावे ॥३०n धन्य धन्य सुरुमाल महामुनि, कैसी धीरज धारी। एका श्यालनी युगपञ्चायुत, पांव भयो दुखकारी। यह उपलर्गलही घर थिस्ता आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय फौन दुःख है । मृत्यु महोत्सव वारी ॥३१॥ धन्य धन्य तु सोशल खामी, व्याधीने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे बहि, तमसों हित लायो

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