Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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जैन-अन्ध-संग्रह।
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. ॐ ह्रीं अप्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्धगुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने सुधारोनपिनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन मय दीपक वार, तुम आगे लाऊं।
मम तिमिर मोह छैकार, केवल पढ़ पाऊ॥ - हरिमेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हान करें।.
हम पूर्जे इत गुण गाय, मंगल मोद घरें ॥६॥ .
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागर तर कपूर, चूर सुगन्ध करो। तुम आगे खेचत भूर, वसुविधःकर्म हरों । हरि मेरु सुदरशन जाय, जिनवर न्हान करें। हम पूर्जे इत्त गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥७॥
ॐ हीं अष्टादशदोपरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमहत्परमेष्टिनें अष्टकमदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफल अंगूर अनार, खारक थार भरों।.. तुम चरन चढ़ाऊ सारं, तां फलं मुक्तिवरों।। . हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हान करें।
हम पूर्फ इत गुण गाय, मंगल मोद धरें॥८॥
ॐ ह्रीं अष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिशगुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल आदिक माठं अदोष, तिनका अर्घ करों। . . . तुम पद पूजों गुण कोष, पूरन पद सुधरों.. .
हरि मेरु सुदरशन जायं, जिनवर न्हान करें। . ... हम पूर्जे इत गुण गाय, वदरी मोद घरें॥६॥.. .

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