Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 69
________________ जैन- प्रन्थ-संग्रह | ३०१ विनती, भूधर दास कृत । अहे जगति गुरु एक सुनिये अर्ज हमारी । तुम प्रभु दीन दयालु मैं दुखिया संखारी ॥१॥ इस भव वन के मांहि काल अनादि गमाया । भ्रमत चतुर्गति मांहि सुख नहीं दुख बहु पायो ||२|| फर्म महा रिपु जोर ये कलकान करें जी | मन माने दुख देय काहू से नहिं डरें जी ॥३॥ कव हूँ इतर निग़ोद कब हूँ कि नर्क दिखावें । सुर नर पशुगति मांहि बहु विधि नाच नचायें ||४|| प्रभु इनको परसङ्ग भव भव मांहि बुरो जी। जो दुख देखा देव तुम से नाहिं दुरो जी ||५|| एक जन्म की बात कहि न सकों सब स्वमी । तुम अनन्त पर्याय जानत अन्तर्यामी ॥ मैं तो एक अनाथ ये मिल दुष्ट घनेरे । किया बहुत वेहाल सुनिये साहब मेरे ||७|| ज्ञान महानिधि लूट रंक निवल कर डारो । इन ही मो तुम मांहि है प्रभु अन्तर पारो ॥८॥ पाप पुण्य मिल दोय पायन बेरी डारो तन कारागृहं मांहि मंद दियो दुख भारी ॥६॥ इनको नेक विगार मैं कुछ नाहि करी जी । यिन कारण जगवन्धु बहुविधि पैर घरो जी ॥१०॥ अब आयो तुम पास सुन कर सुयश तुम्हारो । नीत निपुण महाराज कीजे न्याय हमारो ॥११॥ दुष्टन देहु निकाल साधुन को रख लीजे | विनवे भूधर दास हे प्रभु ढील न कीजे ॥१२॥ 1 इति ।

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