Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्रीपरमात्मने नमः जैन-ग्रन्थ-संग्रह। १२४ सर्वोपयोगी सुललित, सुन्दर, सरस, सम्यग्ज्ञान से मा सम्पूर्ण धर्म ग्रन्थों का संग्रह किमया ही CTEN NROES धीमूनाला. संघी मोशीलाज मास्टर NEMA संग्रहकर्ता सि.नन्दकिशोर सांधेलीय-वरायठा, (सागर)। PANE प्रकाशक-जैन-ग्रन्थ-भंडार, जबलपुर। - - प्रबार, रक्षा बन्धन . । मूल्य मान - २००० । वीर सं० २४५१ (१) मात्र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक का निवेदन। आज से कई वर्ष पहले मेरा विचार एक ऐसे ही गहन अन्थ का संग्रह प्रकाशित करने का था। उसके पश्चात् जब मुझे श्रीगोमटेश्वरजी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ तब वहीं मैसूर जैन बोर्डिङ्ग में मेरा यह विचार और भी गुढ़ हो गया तब से मेरे सकल परिश्रम के फल स्वरूप जो कार्य हो सका वह आज आप की सेवा में उपस्थित है। खेद है मेरी अस्वस्थना और कई अनिवार्य असुविधाओं के कारण, प्रकाशन के मार्ग में अनेक बाधायें आ पड़ी। मेरी बड़ी इच्छा थी कि यह ग्रन्थ वृहत सर्वोपयोगी और सबसे सस्ता प्रकाशित हो सके। किन्तु प्रेस की कठिनाइयों और महंगी के कारण मेरी वह इच्छा पूर्ण न हो सकी और मुझे इस ग्रन्थ को लागत मूल्य पर ही बेचने के लिये बाध्य होना पड़ा। यदि विज्ञ पाठकों और धर्मपरायण जैन-समाज ने इसे अपनाकर मेरे क्षीण उत्साह को वर्द्धित किया तो मैं ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण में अपनी इच्छा को पूरा करूंगा। श्रीमान मास्टर छोटेलालजी प्रकाशक परवार-बन्धु श्रीमान सि० खेमचन्दजी बी. एस. सी. एल. टी. और श्रीमान भगवन्त गणपति-गोयलीय जी काहृदय से अत्यन्त आभारी हूं जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विशेष सहायता की है। इसके अतिरिक्त उन सभी विद्वान कवियों और जैनाचार्यों का मैं परम कृतज्ञ हूँ जिनके सुालत, सरस और भक्तिभाव से परिपूर्ण पद्यों के सभाव से मेरा यह प्रयत्न राका रजनी के समान प्रकाशित रहेगा। . जबलपुर,. . . रक्षा बंधन सं० १९८२ / नन्दकिशोर सांधेलीय । - १५२ पैज हितकारणी प्रेस जबलपुर में और शेष हिन्दी मंदिर प्रेस जबलपुर में मुनिता विनीत, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची। नं० नाम पृष्ठ न० नाम पृष्ठ १, मंगलाचरण ... १ १८, ग्यारह रुद्र ... ८ २, णमोकार मंत्र ... ११६, चौवीस कामदेव... . ३, णमोकारमंत्रकामहात्म्य २०, चौदह कुलकर ... । ४, पञ्च परमेष्ठियों के नाम १ २१, बारह प्रसिद्ध पुरुषों ५, वर्तमान चौवीसी २ के नाम ... . ६, चौबीसतीर्थकरों के २२. सिद्धक्षेत्रों के नाम १० शरीर का वर्ण ... ६ २३, चौदह गुणस्थान... १० ७, चोवीस तीर्थंकरों २४, श्रावककेर उत्तरगुण १० के निर्वाण क्षेत्र ... ६ २५, श्रावकको५३ क्रियायें ११ ८, पांचतीर्थकर घाल- २६, ग्यारहमतिमात्राओं ब्रह्मचारी ... ६ का सामान्य स्वरूप १३ ६, तीन तीर्थकर तीन २७, श्रावक के १७ नियम १५ पदवीधारी ... ६ २८, सप्तव्यसनका त्याग १६ १०, महा विदेह क्षेत्र के २६, वाईसअभक्षकात्याग १६ चीस विद्यमान ३०, श्रावककेनित्यपट्कर्म १७ तीर्थकर ... ६ ३१, सामायिकपा(भाषा) १७ ११, चोचीसमतीततीर्थकर ७ ३२, सामयिकपाठ १२, चौवीस भनागत (संस्कृत) ... २२ तीर्थकर ... ७ ३३, दर्शन पाठ .... २५ १३, वारद चक्रवर्ती ... ७ ३४, दौलतरामकृतस्तुति २६ १४, नव नारायण ... ८ ३५, दर्शन पच्चीसी ... .३० १५, नव प्रति नारायण . ८ ३६, शान्तिनाथाष्टकस्तोत्र ३३ १६, नव ग्लभद्र ... ८ ३७, महावीराटक स्तोत्र ३४ १७, नव नारद ... ८३८, प्रातःकाल की स्तुति ३५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम नं० กล ३६, समाधिमरण ५७, जिन सहस्रनाम स्तोत्र ०३ ( कविद्यानतरायकृत) ३६ ५८, तत्वार्थ सूत्रम् ... ११२ ५६, लघु अभिषेक पाठ १२४ ६०, विनय पाठ ४०, वारहभावना (भूघरदासजी कृत) ४१, सायंकालकी स्तुति ४२, प्रभाती - संग्रह .. ४३, स्तोत्र (द्यानतरायकृत) ४१ 1000 ४२ ४४, वैराग्य भावना ४५, समाधिमरण ... [ २ ] पृष्ठ नं० ५६ छहढाला (पंग्लुरचन्द्रजी वृत्त) ४५ ४६, जिनवाणीकीस्तुति ५३ ४७, नामावलीस्तोत्र... ५४ ४८, मेरी भावना (पं०जुगलकिशोरजीकृत)... ५५ ४६. इष्ट छत्तीसी ५७ ५०, भक्तामरस्तोत्रसंस्कृत ६६ ५१, हिन्दी भक्तामर (पं० गिरिधरशर्माजी कृत) ७१ ५२, आलोचना पाठ... ७६ ५३, निर्वाणकाण्ड (भाषा) ७६ ५४, निर्वाणकाण्ड coo गाथा (संस्कृत).. ५५, पंच कल्याणक पाठ ३८ ३६ ४० ८१ ८२ ઘટ *** ( पं० दौलतरा नवी कृत) " ... ६२. देवशास्त्र गुरु-पूजा १३० ६२, देवशास्त्र गुरु-पूजा 844 ( भाषा) ६३, बीलतीर्थंकर पूजा ... BR ( भाषा) ६४. विद्यमान बीस, तीर्थकरों का अर्ध १५३ ६५, अकृत्रिम चैत्यालयों १५३ १५५ का अर्ध ६६, सिद्ध पूजा ६०, सिद्ध पूजा भवाष्टक १६० ६८, सोलहकारणकाअर्ध १६१ ६६, दशलक्षणधर्म का अर्थ १६२ RER ३०, रत्नत्रय का अर्व १६१ ७९, वीस तीर्थंकर पूजा की अचरी 9.0 800 206 १६१ ७२, सिद्ध पूजा की अचरी१६३ ७३, समुचय चौवसी पूजा१६४ ७४, सप्त ऋषि पूजा : १६७ 630 ७५, सोलह कारण पूजा १७१ ७६, दश लक्षण धर्म पूजा१७४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .[ ३] नं. नाम पृष्ठ नं० नाम पृष्ठ ७७, स्वयंभू स्तोत्र ... १८० ६७, सम्मेदशिखरविधान २५१ ७८, पंच मेरु पूजा ... १८२ ६८, दीप मालिका विधान२६३ .७६, रतत्रय पूजा ... १८५ ६६, धार संस्कृत ... २६८ ८०, दर्शन पूजा ... १८७ १००, जन्म कल्याणकपूजा२७० ८१, ज्ञान पूजा ... १८८ १०१, फूलमाल पचीसी २७५ ८२, चारित्र पूजा ... १६१ १०२, तारंगाजोक्षेत्र पूजा २७८ ८३, न्यामत कृत गजल १९२ १०३, देव शाल गुरुपूजा ८४, नन्दीश्वर पूजा ... १३ की अचरी ... २८१ ८५, निर्वाणक्षेत्र पूजा १६६ १०४, शन्ति पाठ ... २८२ ८६, अकृत्रिम चैत्यालय १०५, विसर्जनम् ... २८४ पूजा ... १६६ १०६, घुधजनकृत स्तुति २८४ ८७, देव पूजा ... २०५ १०७, सुप्रभात स्तोत्रम २८५ ८८, सरस्वती पूजा ... २०६ १०८, दृष्टाष्टक स्तोत्रम् २८७ ८६, गुरु पूजा ... २१२ १०६, अघाटक स्तोत्रम् २८८ १०,मक्शी पार्श्वनाथ पूजा२१५ ११०, सूतक निर्णय ... २८८ ६१, श्री गिरिनार क्षेत्र १११, दुःख हरण विनती २१० पूजा ... २१६ ११२, नेमिनाथ जी का ६२, सोनागिरि पूजा... २२५ वारह मासा ... . २९२ रधिवत पूजा .... २३० ११३, वारहमासी राजुल ६४, पावापुर सिद्ध क्षेत्र क्री .. ... २६४ पूजा ... २३३ ११५, विनती भूधरदास ६५, चंपापुर सिद्ध क्षेत्र छत पूजा ..... २३५ ११५, निशि भोजन कथा २९६ १६, लघुपंच परमेष्ठी ११६, फुटकर गायन ... २६८ विधान ... २३८ ११७, गजल-दादरा २९६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . [ ४] नं. नाम पृष्ठ न. नाम पृष्ठ ११८, पूजा का महात्म्य ३०० १२२, जिनवाणीकीस्तुति ३०६ १६६, रसिया ... ३०० १२३, भोजनोंकीमार्थनाएं ३०७ १२०, विनतीभूदरंदासकृत ३०१ १२४, मिथ्यातका फल ३०८ १२६, दश धर्म के भजन ३०१ ॐनमः सिद्धभ्यः। ॐकार विन्दुसंयुकं नित्यं ध्यायति योगिनः। कामर्द मेक्षिदं चैव काराय नमो नमः ॥१॥ अविरलशब्दधनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका। मुनिभिरूपासिततीर्या सरस्वती हरतु नो दुरितम् ॥ अज्ञानतिमिरांधानां ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥ परमगुरुवे नमः परम्पराचार्यश्रीगुरुवे नमः। सकलकलुपविध्वंसक श्रेयसां परिवई के धर्मसंवन्धकं भव्यजीवमनःप्रतिवोधकारकमिदं शास्त्र श्री नाम धेयं......(अन्य का नाम लेवे) एतन्मूलग्रंथकतार श्रीलर्वदेवास्तदुत्तरग्रंथकर्तारः श्रीगणधरदेवास्तेषां बचानुसारतामा. साध श्री......(ग्रन्यकर्ता का नाम लेवे) विरचितम् । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुदकुंदाचो जैनधर्मोस्तु मंगलम् ॥ धकरः श्रोतारश्च सावधानतया शृपवन्तु ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीविनाय नमः जैन-ग्रन्थ-संग्रह णमोकार मन्त्र | गाथा | ११-७ ་་ १९१-७ समोअरहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । . 22-8 १६-१ णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्व साहूणं । 1 इस णमोकार मंत्र में पांच पद, पैंतीस अक्षर और अंठावन मात्रा हैं। णमोकार मंत्र का माहात्म्य | एसो पंच रामोयारो, सव्वपावपणासयो । मंगलायम् च सव्वेसिं, पढ़मं होय मंगलम् ॥ अर्थ-यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है और सब मंगलों में पहला मंगल है | पञ्च परमेष्ठियों के नाम | अरहंत, सिद्ध, भाचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु । उँही श्रसि श्रा उसा । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । नोट - अ सिम उसा नाम पञ्च परमेष्ठी का है । डं. मैं पंच परमेष्ठी के नाम गर्मित हैं ।. ही में २४ तीर्थंकरों के नाम गर्मित हैं । · Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैन ग्रन्थ संग्रह। - बी पन्दिरणी की वेदी गृह में प्रवेश करते ही "जब सर्व वय निति, निनिसदि" इस प्रकार वार करने मोकार नकार बार पाठ परे। तत्पश्चाद बत्तारि मंगलं-भरहंत मंगलं । सिद्ध मंगलं साहू मंगलं । केवलिपएणचो धम्मो मंगलं ॥१॥ चत्तारि लोगुचमाअरहंत लोगुत्तमा । सिद्ध लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा। केवलिपण्णतो धम्मो लोगुचमा ॥२॥ चचारिसरणं पध्वजामिअरहंत सरणं पव्वंजामि । सिद्ध सरणं पवनामि । साहू 'सरणं.पवजामि । केवलिपएणतो धम्मो सरणं पवजामि ॥ ॐ झौ झी स्वाहा ॥ वहां पर चौबीस धीयकमान सेवा पाहिए। पार देखिए। काल सम्बन्धिचतुर्विशति तीर्थकरेन्यो नमोनमः। अद्य में सफले जन्म नेत्रे च सफले मम । स्वामद्राक्षं यतो देव हेतुमक्षयसम्पदः ॥१॥ अद्य संसार गम्मीर पारावार सुदुस्तरः। सुतरोऽयं क्षणेनैव जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥२॥ अद्य मे क्षालितं गावं नेच विमले कते। स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव. दर्शनात ॥२॥ मध मे सफलं जन्म.प्रशस्तं सर्वमङ्गलम् । संसारार्णवतीर्णोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनाव un अद्य कर्माष्टकच्चाले विधूतं सकषायकम् । . दुर्गतेविनिवृतोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥५॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन-अन्य संग्रह। . अद्य सौम्या ग्रहाः सर्वे शुभाश्चैकादशस्थिताः। . नष्टानि विधजालानि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥६॥ मद्य नहो महाबन्धः कर्मणां दुखदायकः । सुखसङ्ग समापनो जिनेन्द्र तव दर्शनातू 100 . अद्य कर्माष्टकं नष्टं दुःखोत्पादनकारकम् । सुखाम्भोधिनिमयोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ मद्य मिध्यान्धकारस्य इन्ता मानदिवाकरः। उदितो मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्र तव दर्शनादा भद्याहं मुछती भूतो निताशेषकल्मषः । भुवनत्रयपूज्योऽहं जिनेद तव दर्शनात् ॥१०॥ चिन्दानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥१९॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। . : तस्मात्कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ १२॥ नहि त्राता न हि त्राता न हि त्राता जाये। वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥ १३॥ जिने भक्तिर्जिने भकिर्जिने भक्तिर्दिने दिने। : सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥१४॥ . . जिनधर्मविनिर्मुकम् मा भवन चक्रवर्त्यपि। ' स्यांवेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितम् ॥ १५॥ : पगढ पोसवर गाहांग मनस्वार बरला पाविस्कार पवाद प्रण के लिये पावल पड़ाना तो दोनो सिसा सोच त्याच पड़कर पड़ावे. अपारसंसारमहासमुद्रप्रोचारणे प्राज्यतरीम्सुमक्त्या। दीर्धाक्षताधवलासंताधैर् जिनेन्द्र सिद्धान्तयतीन यजेऽहम् ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-अन्य संग्रहा जैही मामयपदप्राप्तये देषशास्त्रगुरुभ्यो मक्षवान् निर्वामि । परिपुष परमारों को गोरे विकास और र पार पडावे. विनीतमव्याजषियोधवान् पर्यान् सुचर्याकयनकर्यान्। कृन्दारविन्दप्रमुखैः प्रसूनैर् जिनेन्द्रसिद्धान्तमतीन् यजेऽहम् ॥२॥ ॐ ही कामबाणविध्वंसनाय देवशालगुरुभ्यः .पुष्पं फलं निर्वपामि॥ . बदि विधीवो साग, बादान, स्वावलीमा पहाना हो. वो नीचे विधा सोपोर पर पड़ा, तुभ्यद्विमुल्यन्मनसाऽप्यगम्यान कुवादिवादाऽल्खलितप्रभावान फलैरलं.मोक्षफलामिसारैर जिनेन्द्रसिधान्तयतीन बजेऽहम् ॥३ हो मोक्षफलप्राप्तये देवशाखगुरुभ्यः फळं निर्षपामि । दि विसीको घर्ष पढ़ापा तो वो नीर सिया रतीब नत्र पोलर पड़ावाचदिए. ". .:... . .. सद्वारिंगन्धाक्षतपुष्पजातैर् नैवेद्यदीपामलधूपन्न। फविचित्रैर्धनपुण्ययोग्यान जिनेन्द्रसिद्धान्त यतीन यजेश केही अनयपदप्राप्तये. देवशासगुरुभ्योऽय :समर्पयामि। उपयुक चार प्रकार के द्रव्यों में से जो द्रव्य हो उसी द्रव्य काश्लोक मंत्र पढ़करबह द्रव्यचढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् नीचे लिखी स्तुति पढ़ना चाहिए। .:. : . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-अन्य संग्रह। . . दौलतराम कृत-स्तुति । . . दोहा। सकल-जय-बायक तदपि, निजानंद रखलीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, मरि रज रहस विहीन । पद्धरि छन्द। जय वीतराग विज्ञानपूर । जय मोह तिमिर को हरन सुरंग नपान अनंतानंतधार। गमुख बीरज मंडित अपार ॥१॥ जय परमयांति मुद्रासमेत । भविजनको निज मनुभूतिहत। भवि भागनवश जागेवशाय । तुम धुनिह सुनि विभुम नशाय २॥ तुम गुणचिंतत निजपर विवेक । प्रघटै विघटे मापद अनेक तुम जगभूषण दूषणवियुका सब महिमायुक विकल्पमुक ॥३॥ भविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूपं । परमात्म परमपावन मनूप ॥ शुभ अशुभविभावमभावकोना स्वाभाविकपरिणतिमयमशीन Me अष्टादशदोषविमुकधीर । सुचतुष्टयमय राजत गंभीर । मुनि गणधरादि सेवत महंत । नव केवललग्घिरमा धरंत ॥ तुम शासन लेय अमेय जीव । शिव गये जाहिजै हैं सदीव । भवसागर में दुबकारवारितारन को और न आप टारि॥ यहलखिनिजदुख गदहरण काज । तुमही निमित्तकारण इलाज। जानें, ताते मैं शरण आय! उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥ में प्रम्यो अपनपो विसरि आप। अपनाये विधिफल पुण्य पाप। निजको परको करता पिछान । परमें मनिष्टता इष्ट ठान ॥ बारुलित भयो अडानधारि।ज्यों मगमगतृष्णा जानि वारि॥ बापयति में मापो बिवार । फरहन मनुभयो स्वपदखाया Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन-अन्य संग्रह। तुमको विन जाने जो फलेश। पाये सो तुम जानत मिनेश। पशुनारकनर मुरगतिमझार भव घरघरमयो अनंतवाररण अव काललब्धि बलते दयाल । तुव दर्शन पाय भयो सुशाल मन शांतमयों मिटसकलदांचाख्योस्वातमरस दुखनिकंदर१५ तातें अब ऐसी करहु नाथ। विधुरै न कभी तुव चरण साथ.॥ तुन गुणगणको नहिं छेव देव । जगतारन को तुअबिरदुश्व १२० आतम के अहित विषय कषाय । इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूं आपमें आप लीन ! सॉकरों हाहुँ व्यों निजाधीन ॥१२॥ मेरे न चाह कुछ और ईशा रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश . . मुझ कारज के कारन सुभाप । शिव करहु हरहु मममोहतापा शशि शांतारन तपहरन हेत। स्वयमेव तथा तुंव कुशल देत॥ पीवत पियूषं ज्यों रोगंजाय । त्यों तुम अनुभव ते भवनसायरा त्रिभुवन तिहुंकाल मझार कोय । नहिंतुमविन निजसुखदायहाय मोउर यह निश्चय भयोआजादुख जलघिउतारन तुमिजिहाजधा दोहा। . तुम गुण गणमणि गणपती, गणतन पाहि पार। दौल स्वल्पमति किमि कहै, नमू त्रियोग संहारा ' इति दौलतरान व स्तुति। श्रीदर्शन पच्चीसी। तुम निरखत मुझको मिली मेरों संपति आज। कहा चक्रवति सम्पदा कहा स्वर्ग:साम्राज ॥१॥ तुम बंदत जिनदेवजी नित नव मंगल होय। विन कोटि तत्क्षण टरें लहहिं सुयश सव लोय २१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-अन्य संग्रहा तुम जाने विन नाथजी एक स्वांस के माहि॥ जन्म-मरण ठारह किये साता पाई नाहि. ॥३॥ आन देव पूजत लहे दुःख नरक के बीच। भूख प्यास पशु गत सही करो निरादर नीच ॥ ४॥ नाम उचारत सुख लहे दर्शन से अघ जाय । . पूजत पावे देव पद ऐसे हे जिनराय ॥५॥ बंदत हूं जिनराज मैं घर उर समता भाव । तन धन जन जग जाल से घर विरागता भाव ॥६॥ सुनो मरज हे नाथजी त्रिभुवन के आधार । दुष्ट कर्म का नाश कर बेगि करो उद्धार ॥७॥ याचत हूं मैं आपसे मेरे जिय के मांहि । राग द्वेष की कल्पना क्यों हु उपजे नाहि ॥ अति अद्भुत प्रभुता लखी बीतरागता मांहि । विमुख होहि ते दुख लहें सन्मुख सुखी लखाहिं ॥8॥ कलमल कोटिक न रहें निरखत ही जिन देव । ज्यों रवि जगत जगत में हर तिमर स्वयमेव ॥१०॥ परमाणू पुद्गल तणी परमातम संयोग । भई पूज्य सब लोक में हरे जन्म का रोग ॥११॥ कोटि जन्म में कर्म जो बांधे हते अनंत। ते तुम छवि अविलोकिते छिन में हो है अंत ॥ १२ ॥ आन नपति किरपा करे तब कछु दे धन धान । तुम प्रभु अपने भक को कर लो आप समान ॥ १३ ॥ यंत्र मंत्र मणि औषधी विषहर राखत प्राण । त्यो जिन छवि सव भ्रम हरे कर सर्व प्राधान ॥ १४॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैम-प्रन्थ संग्रह । त्रिभुवन पति हो ताहि तैं छत्र विराजे तीन । पंधरा नाग नरेश पद रहे चरण आधीन ॥ १५ ॥ सर्व निरखत भव आपने तुव भामंडल बीच । भ्रम मेटे समता गई नाहिं लदे गति नीच ॥ १६ ॥ दोई और ढोरत अमर चौसठ चमर सफेद | निरखत ही भव कौ हरे भव अनेक को खेद ॥ १० ॥ तरु अशोक तुव हरत है भवि जीवन का शोक । आकुलता कुल मेटि के करै निराकुल लोक ॥ १६ ॥ अंतर बाहिर परिग्रह त्यागी सकल समाज । सिंहासन पर रहत है अंतरीक्ष जिनराज ॥ १६ ॥ जीत भई रिपु मोह तैं यश सूचत है तास । देव दुंदुभि के सदा बाजे बजे अकाल ॥ २० ॥ बिन अक्षर इच्छा रहितं रुचिर दिव्य ध्वनि होय । सुर नर पशु समझे सबै संशय रहे न कोय ॥ २१ ॥ बरसत सुर तक के कुसुम गुंजत अलि चहुं ओर । फैलत सुयश सुवासना हरषत भवि सब और ॥ २२ ॥ समुद चात्र अरु शेरा श्रहि अर्गल बंधु खन्नाम । विघ्न विषम सयही टर्रे सुमरत ही जिन नाम ॥ २३ ॥ श्रीपाल चंडाल पुनि अंजन भील कुमार । हाथो हरि श्रहि सब तरे आज हमारी बार ॥ २४ ॥ बुध जन यह विनती करै हाथ जोड़ शिर नाय । जब लों शिव नहिं रहे तुव भक्ति हृदय अधिकाय ॥२५॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्य-संग्रह) शान्तिनाथाष्टक स्तोत्र। ... नाना विचित्रभव दुःख रासी, नाना विचित्रं मोहान पांशी । पापानि दोपानिहरंति देवा. इह जन्म शरणे श्री शान्तिनाथं ॥१॥ संसार मध्ये मिथ्यात्व चिंता, मिथ्यात्व मध्ये कर्मानि बद्धा। ते वन्ध छेदन्ति देवाधि देवा, इह जन्मे मारणे श्रीशान्तिनाथं ॥२॥ कामल्य क्रोधस्य माया त्रिलो, चतु: फपाय इह जन्म घन्धम् । ते.वन्ध छेदन्ति देवाधिदेवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥३॥ जातस्य मरणं अवृतस्य वचनं पति जीवा बहु दुःख जन्म। ते बंध छेदन्ति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे . श्रीशान्तिनाथं ॥४॥ चारित्र होने नर जन्म मध्ये, सम्यक र प्रतिपाल यति। ते जीव लीडन्ति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥५॥ मृदु वापमहीने कठिनस्य चिन्ता, परजीव हिंसा मनसोच बंधा। ते बंध छेदंति देवाधिदेवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथाम परद्रव्य चोरी परदार सेवा, हिंसादि कक्षा अनुवर बेछ । ते पंध छेदंति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥७ पुत्रानि मित्रानि कलत्र बंध, इह वध मध्ये बहु जीव बंध। ते बंध छेदति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथम् । जपति पढ़ति नित्यं शान्तिनाथा विशुद्ध स्तवन मधु गिरायां, पापतापाप हार शिव सुख.निधि पोतं, सर्व सत्वानुक। : । कृत भुनि गुणभद्रं, सर्व कार्या सुनित्यं । विमानाय चोर'... Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. जैन - प्रन्थ-संग्रह . किये नाग नागिन अधः लोक स्वामी । हरो मान तू दैत्य को हो अकामी ॥ ६ ॥ तुम्ही कल्पवृक्ष तुही कामधेनुं । तुही दिव्य चिन्तामणी नाग एवं ॥ पशू नर्क के दुःख सेतू छुडावे ! महा स्वर्ग में मुक्ति में तू बसावे ॥ ७ ॥ करें लोह को हेम पाषाण नामी । रटे नाम से क्यों न हो मोक्षगामी ॥ करे सेव ताकी करे देव सेवा। सुने वयन सोही हे ज्ञान. मेवा ॥ ८ ॥ जपे जाप ताको नहीं पाप लागे । घरे ध्यानं ता के संवे दोष भाजे ॥ विना तोह नाने घरे भव घनेरेः । तुम्हारी कृपा से सरे काज मेरे ॥ ॥ दोहा - गणधर इन्द्र न कर सके तुम विनती भगवान । धानत प्रीतं निहार के कीजे आप समान ॥१० ॥ : वैराग्य भावना | | दोहा। बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमाहिं । त्यों चक्री सुख में मगन, धर्म विसारै · नाहिं | योगीरासा वा नरेन्द्र छन्द | : इस विधि राज्य करे नर नायक, मेोगे पुण्य विशाल | सुख सागर में मग्न निरन्तर जात न जाना काल ॥ एक दिवस शुभ कर्म योग से, क्षेमंकर मुनि बंदे । देखे श्री गुरु के पद पंकज, लोचन अलि आनंदे ॥ १ ॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिर नायो, करें पूजा युति कीनी । साधु समीप विनंय 1 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रत्य-संग्रह। पर बैठो चरणों में हग दीनी गुरु उपदेशो धर्मशिरोमणि, सुन राजा वैरागो। राज्य रमा पनतादिक जो रस, सो सर्प नीरस लागो ॥२॥ मुनि सूरज कथनी किरणाबलि, लगत मर्म बुधि भागो। भव तन भोग स्वरूप विचारो, परम धर्म अनुरागोया संसार महा वन भीतर, भर्मत छोरन माये । जन्मन मरन जरादों दाई, जीव महा दुख पावे ॥३॥ कंवई कि जाय नर्क पद भुजे, छेदन भेदन भारी।कवहूं कि पशु पर्याय धरे तहा, बध बन्धन भयकारी। सुरगति में परि सम्पति देखे, राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति भय, सर्व सुखी नहीं कोई ॥४॥ कोई इष्ट वियोगी बिलखे, कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिदी दीखे, कोई तनका रोगी। किसही घर कलिहारी नारी, के बैरी सम भाई । किलही के दुख याहर दीखे, किसही उर दुचिताई ॥५॥ कोई पुत्र विना नित मूरै, 'होइमर तेव रोवें। खोटी संतति से दुःख उपजे, क्यों प्राणी सुख सोब। पुण्य उदय जिनके तिनको भी, नहीं सदा सुख साता। यह जग वास यथारय दोखे, सबही हैं दुःख घाता॥६॥जो संसार विर्षे सुख होतो, तीर्थंकर को त्यागें । काहे कों शिव साधन करते, संयम से अनुरागें । देह अपवान अधिर धिनावनी, इसमें सारन कोई । सागर के जल से शुचि कोजे, तोभी शुद्ध न हाई॥ ७॥ सप्त कुधातु भरी मल मूत्र से, चर्म लपेटी सोहै । अन्तर देखत या सम जग में, और अंपावन को. है। नव मल द्वार श्रवै निशि पासर नाम लिये घिन आंवें। • व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां, कौन सुधी सुख पावे ॥ पोपत तो दुख दोष करे अति, सोपत सुख उपजावे। दुर्जन देह स्वभाव वराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे ॥राचन योग्य स्वरूप Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ-संग्रह | न याको, विरचन योग्य सही है । यह तन पाय महा तप कीजे: इस में सार यही है ॥ & ॥ भोग बुरे भव रोग बढ़ावें, बैरी है जग जीके । वे रस होय विपाक समय अति, सेवत लागे. बोके ॥ वज्र अग्नि विषधर से हैं वे, हैं अधिके दुःखदाई । धर्मरक्षको चार प्रबल अति दुर्गति पन्थ सहाई ॥ १० ॥ मोह उदययह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो जब कंचन माने ॥ ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर, मन वांछित जन पावे । तृष्णां नागिन त्यों त्यों. " " : के लहर लाभ विष लावे ॥ ११ ॥ . मैं चक्री पद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे । तोभी तनक भये ना पूरण, भोग मनोरथ मेरे ॥ राज समाज महा अघ कारण, वैर बढ़ावन हारा । वेश्या सम लक्ष्मी अति चंचल इसका कौन पत्यारा ॥१२ मोह महा रिपु वैर विचारे, जग जीव संकट डारे । घरकारागृह वनिता वेड़ी, परंजन हैं रखवारे ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण. तप, ये. जिय को हितकारी । ये ही सार असार और सव, यह चक्री जीय धारी ॥ १२ ॥ छोड़े चौदहरन गंवोनिधि, और छोड़े संग साथी । कोटि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लव हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहुतेरो, जीर्ण सृणवत् त्यागी । नीति विचार नियोगी सुत को, राज्य दिया वह भागी ||१४|| होय निस्सल्य अनेक नृपति संग, भूषण वशन उतारे। श्रीगुरु चरण घरी जिन मुद्रा, पंच महा व्रत धारे ॥ धन्य यह समझ सुबुद्धि जगौत्तम, धन्य वीर्यः गुण घारी । ऐसी सम्पति छोड़ बसे वन, तिन पद धोक हमारी ॥ १५ ॥ 1. परिग्रह पोठ उतार सब, लीनो चारित्र पंथ । निज स्वभाव में थिर भये, बज्रनाभि निग्रंथ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन-प्रन्थ-संग्रह। - समाधिमरण भाषा (पं० सूरचन्दजी रचित) बन्दो श्रीमहन्त परम गुरु, जो सवको सुखदाई। इसजगमें दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई। अब मैं अरज करू' नित तुमसे, कर समाधि उरमाहीं। अन्तसमयमें यह वर माँगू,सो दीजे जगराई ॥१॥ भव भवमें तन धार नये मैं, भव भव शुभ संग पायो। भव मवमें नृप ऋद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो। भव भवमें तन पुरुष तनो घर, नारीहूं तन लोनो। भव भवमें मैं भयो नपुंसक, आतमगुण नहिं चीनो २० भव भवमें सुरपदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव भवमें गति नरकतनी ध, दुख पायो विधयोगे। भव भवमें विर्यच योनि घर, पायो दुख अति भारी। भव भवमें साधर्मी जनको, संग मिलो हितकारी ॥३॥ भव भवमें जिनपूजन कोनी, दान सुपात्रहि दीनो। भव भवमें मैं समयसरणमें, देखो जिनगुण भीनो। एती वस्तु मिली भव भवमें, सम्यक् गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण करा मैं, ताते जग मारमायो॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, लदा कुमरणहिं कीनो। एक पारद सम्यकयुत मैं, निज मातम नहिं चीनो। नो निजपरको शान होय तो, मरण समय दुखदाई। देह विनाशी मैं निजमाशी, जोति स्वरूप सदाई ॥५॥ विषय कपायनमें वश होकर, देह आपनो जानो। . कर मिथ्याधरधान हिये विच, आम नाहि पिछानो । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ge जैन-अन्य संग्रह। - यो कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो। सम्यादर्शन शान तीन ये, हिरदेमें नहिं लायो॥६॥ अव या अरंज कर प्रभु सुनिये, मरणसमय यह मागो। रोग जनित पीड़ा मत होऊ, अरु कषाय मत जागो ये मुझ मरणसमय दुखदाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरणहाय मुझ, अरु मिथ्यागद छोजा॥ यह तन सात कुधात मई है, देखत हो धिन आवे । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, मीवर विष्टा पावे॥ अति दुर्गध पावन सो यह, मूरख प्रीति वढावे।। देह विनाशी यह अविनाशी, नित्यस्वरूप कहावे ॥ . यह तन जीर्ण कुटीसम मेरो, याते प्रीति न कीजे। नूतन महल मिले फिर हमको, यामें क्या मुझ :छीजे। मृत्यु होनसे हानि कौन है, याको भय मत लायो। समता से जो देह वजोगे, तो शुभ तन तुम पावो TER मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माहीं। जीरण तनले देत नयो यह, या सम साऊ नाहीं । या सेनी तुम मृत्युसमय नर, उत्सव अतिही.कीजै। क्लेशभावको त्याग सयाने, समताभाव धरीजै ॥ १० ॥ जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। 'मृत्युमित्र विन कौन दिखावे, स्वर्ग सम्पदा भाई ॥ राग द्वेषको छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई। अन्त समय में समता धारो, पर भव पन्य सहाई ॥१२॥ कर्म महा दुठ वैरी मेरो तासेती दुख पावे। . .तन पिंजरे में बंध कियो मुझ, जासों कौन छुडावे ॥ 'भूख.तया दुख आदि अनेकन, इस.हो.तनमें गाढ़े। 'मृत्युराज अव आप दयाकरं तन पिंजरसे काढ़े ॥१॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - प्रन्थ संग्रह | नाना वस्त्राभूषण मैंने इस तन को पहराये । 3 ४ गंध सुगंन्धित अंतर लगाये, पटरस अशन कराये ॥ रात दिना में दास होयकर, सेव करी तन केरी । सो तन मेरे काम न भायो, भूल रहो निधि मेरी ॥१३॥ मृत्युराय को शरण पाय तन, नूतन ऐसा पांऊ । जामें सम्यक्रतन तीन लहि, आठो कर्म खपाऊ ॥ देखो तन सम और कृतघ्नो, नांहि सुना जग माँही । मृत्यु समय में वेही परिजन सबहा हैं दुखदाई ॥१४॥ यह सब मोह बढ़ावनहारे जियको दुरगति दाता । इनसे ममत निधारो जियरा, जो चाहे सुख साता ॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मांगो इच्छा जेती । समता धरकर मृत्यु करो तो, पावा संपति तेती ॥१५॥ चौ आराधन सहित प्राण तज तौ ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्युकल्पद्रुम सम नहि दाता, तीनों लोक मंझारे । ताक पाय कलेश करो, मत जन्म जवाहरहारे ॥ १६ ॥ इस तनमें क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरण हो है । तेज कांति वल नित्य घटत है, यालम अधिर सु कोहै ॥ पांचों इन्द्री शिथल भद्द तव, स्वास शुद्ध नहि श्रावै । तापर भी ममता नहिं छोड़े समता उर नहिं लावै ॥१७७ मृत्युराज उपकारी जिय को, तिनके तोहि छुड़ावे । नातर या नन बंदीग्रह में, पड़ा पड़ा विललावे ॥ पुद्गल के परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी । यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञानजोति गुणवासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सव पुदुर्गल लारे । मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सेा भाव हमारे ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - प्रन्य संग्रह ! यो तन से इस क्षेत्र संबंधी, कारण मान बनी है। खानपान दे याको पोपो, अब समभाव उनेा है ॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान विन, यह तन अपना जाना ॥ इंद्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछाने! ॥ तन विनशनते नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई । कुटुम आदिको अपना जाना, मूठ अनादी छाई ॥ २० ॥ अब निज भेद यथारथ मा. मैं हूं ज्योतिस्वरूपो । उपजे विनशे लो यह पुद्गल, जानो याको रूपी इष्टनिष्ट जेते सुब्दुल हैं, सो सब पुद्गल सागे । मैं जब अपना रूप विचारी, तव वे सब दुख माने विन समता तन नन्त घरे मैं, तिनमें ये दुख पायो । शतावर्ते नन्व वार मर, नाना योनि भ्रमायो चार मन्तही अग्निमाहिं जर, सूवो सुमति न लायो । सिंह व्याघ्र अहि नन्तवार सुझ, नाना दुःख दिखायो १२२ ॥ विन समाधि ये दुःख लहे मैं, अव उर समता माई। मृत्युराजको भय नहि मानो देवै तन सुख दाई यात जवलग मृत्यु न सांचे, तदलग जप तप कीजै । जप तप दिन इस जयके माहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥ स्वर्ग संपदा तपसे पावे, तपसे कर्म नशावे 1. तपहीसे शिवकामिनिपति है, यासे तप वितं लावे | . जब मैं जानी समता दिन मुझ, कोऊ नाहि सह ॥ मात पिता सुत्र बान्धवं तिरिया ये सब हैं दुखदाई२४॥ मृत्यु समयनें मोह करें ये, ता भारत हो है ! आरत वै गति नीवी पावे, यों उस मोह तनों है । और परिग्रह जेते जगमें, तिनसे प्रीति न कीजे परमषमें ये संग म चालें नाहक भारत कीजे ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रत्य-संग्रह। - जे जे बस्तु लशत हैं तुझ पर, तिनसे नेह निवारो। परगतिमें ये साथ न चालें, ऐसो भाव विचारो॥ नो परभवमें संग चले तुझ, तिनसे प्रीति सुकोजे । पंच पाप तज समता धारी, दान चार विध वीजारा दशरक्षणमय धर्म धरोज, अनुकम्पा चित लावो। पौड़श कारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावना भावो। चारों परवी प्रोपध कीजे, अशन रातिको त्यागो। समता घर दुरभाव निवारो, संयमसूअनुरागो ॥२७॥ गन्तलमयमें ये शुभ भावहि, होवें आनि सहाई । स्वर्ग मेक्षिफल तैहि दिखावें, ऋद्धि देय अधिकाई ॥ सोटे भाव सफल जिय त्यागो, उरमें समता लाके। जाखेती गति चार दूर फर, यसो मोक्षपुर जाले ॥२॥ मन थिरता करो तुम चितो, ची आराधन भाई। .येही तोको सुखफी दाता, और हितू को नाई। आगे पदु मुनिराज भयें हैं तिन नहि थिरता भारी। याहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥२॥ तिनमें कछुक नामकई मैलो सुन जिय! चित लाके। मापसहित अनुमोद तामें, दुर्गति हाय न जाके। अरु समता निज उरमें भाव, भाव अधीरज जाये। यो निशदिन जो उन मुनिवरको, ध्यान हिये विचलावे ॥३०n धन्य धन्य सुरुमाल महामुनि, कैसी धीरज धारी। एका श्यालनी युगपञ्चायुत, पांव भयो दुखकारी। यह उपलर्गलही घर थिस्ता आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय फौन दुःख है । मृत्यु महोत्सव वारी ॥३१॥ धन्य धन्य तु सोशल खामी, व्याधीने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे बहि, तमसों हित लायो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = जैन ग्रन्थ-संग्रह | : इहभाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मचू अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं | ॥ दोहा - वसुविधि अर्ध सँजायके, अति उछाह मन कीन । जासों पूजौं परम पद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥६॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनघ पद प्राप्ताये अर्धं निर्वपामिति स्वाहा ॥६॥ अथ जयमाला । देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहूं आरती, भल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥ पड़ि छन्द | चकर्मकि त्रेसठ प्रकृति नाशि। जीते अष्टादशदोषराशि जे परम सगुण हैं अनन्त धीर । कहवत के छयालिस गुण गंभीर ॥ २ ॥ शुभसमवसरण शोभा अदार । शत इन्द्र नमत कर सीस धार। देवादिदेव अरहन्तं देव । वन्दो मनवचतनकरि सुसेव ॥३॥ जिंन की धुनि है ओंकाररूप । निर अक्षरमय महिमा अनूपं । दश- अष्ट महाभाषा समेत । लघुभांषा सात शतक सुचेत ॥ ४ ॥ सो. स्याद्वादमय सप्तभंग । गणधर गूंथे बारहसुअंग रवि शशि न हरै सो तम हराय । सो शास्त्र नमोबहु प्रीति व्याय ॥ ५ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। हो देवशाखगुरुसमूह ! अत्र अयर अवतर संघीपट। . . ॐ हीं देवशालगुरुसमूह ! अन तिष्ठतिष्ठ । ॐही देवशालगुरुसमूह अत्र ममसन्निहितो भवभववपर गीता बन्द सुरपति उरण नरनाथ तिनकर, चन्दनीक सुपदप्रमा। अति शोभनीक सुवरण उज्जल, देख छवि मोहितसभा ॥ वर नीरक्षीर समुद्रघटमार,मय तमु बहु घिधि नवं । अरहंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रन्थ नित पूजा रचू ॥१॥ दोहा-मलिन वस्तु हर लेत सब, जलस्वभाव मलछीन। . जासों पूजे परमपद, देषशास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ... ही देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जे त्रिजग उदरमभार मानी, तपत अति दुद्धर खरे। तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥ तभ्रमरलोभित घाण पावन, सरसचन्दन घसि सचूं। अरहंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा रचूं ॥२॥ दोहा-चन्दन शीतलता करे, तपतवस्तु परवीन । ::: जासों पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ... ही देवशास्त्रगुरुभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामोति स्वाहा ॥२॥ . यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सुविधि उई। अति दृढ़ परमपावन यथारथ, भक्ति पर नौका सही। उजल अखंडित सालि तंदुल-पुज धरि नयगुण ज~। "अरहंतश्रुतिसिद्धांतगुरु निरग्रंथ नितपूजा रचू॥३॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। दोहा-तंदुल सालि सुगन्धि अति, परम अखंडित दीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन॥३॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ जे.विनयवंत सुमव्यउरअंबुजप्रकाशन भान हैं। जे एकमुखचारित्र भाषत, विजगमाहिं प्रधान हैं। लहि कुदकमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसी यचूं। भरहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा रचू॥४॥ दोघां-विविधांति परिमल सुमन, भ्रभर जास आधीन । . तासो पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥४॥ - ॐहीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाणविध्वंसनाय: पुष्पं निर्व पामीति स्वाहा ॥४॥ भति सवल मदकंदर्प जाको, क्षुधा उरग अमान है। दुस्सह भयानक तासु नाशनको सु गरुड़समान है। उत्तम छही रसयुक्त नित नैवेध करि घृतमें पचूं। अरहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा र॥५॥ पोहा-नानाविधि संयुक्तरल, व्यंजन सरस नवीन । जासों पूजों परमपद, देवशाल गुरु तीन ॥५॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षधारोगविनाशाय च निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ जे त्रिगज उद्यम नाश कीने मोहतिमिर.महावली। तिहिकर्मघांती ज्ञानदीपप्रकाशजोति प्रभावली॥ इह भौति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें खचूं। अरहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा रचूं॥६॥ . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्थ-संग्रह। १५१ - भविक-सरोज-विकासि, निद्यतमहर रविसे हो। जतिं श्रावक भाचार कथन को. तुम्ही बड़े हो। फूलसुवाल अनेकों (हो), पूजों मदन प्रहार । सीम० ॥४॥ ॐ हीं विद्यमान विंशतितीर्थकरेभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुरुष्पं निर्व०॥ कामनाग विपधाम-नाशको गरुड़ कहे हो। छुपा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो । नेवज बहु घृत मिष्टसों (हो), पूजों भूख विडार । सीम०५॥ . ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व०॥ उद्यम हान न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है। मोह महातम घोर, नाश परकाश फरयो है। पूजों दीपप्रकाशसों (ही) ज्ञानज्योतिकरतार । सीम० ॥६॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनायदोपं निर्य:॥ फर्म आठ सय काठ, मार विस्तार निहारा। ध्यान अगनिकर प्रगट, सरव कीनों निरवारा। धूप अनूपम खेवते (हा), दुल जलै निरधार । सीम०॥७॥ ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वः ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। - मिथ्यावादी दुष्ट, लोमऽहंकार भरे हैं। .. सवको छिनमें जीत, जैनके मेर. खरे हैं : फल अति उत्तमलों जजों (हों), वांछितफलदातार सीमा ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलंनिर्व० जल फल आठों दर्ष, अरघ कर प्रीत धरी है। गणधर इंद्रनिहते, श्रुति पूरी न करी है। 'धानत' सेवक नानके हो), जगते लेहु निकार। सीमा * ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽनपदप्राप्तये मध्यं निर्व० अथ जयमाला भारती। सोरठा । ज्ञानसुधाकर चंद, भविकखेतहित मेघ हो। भ्रमतममान अमंद, तीर्थंकर चीसों नमों॥ १॥. . . . .. चौपाई। . . . :सीमंधर सीमंधर स्वामी । सुगमंधर सुगमंधर नामी। बाहु वाहु जिन जगजन तारे। करम सुवाहु वाहुबल दारे २॥ जोत सुजाव केवलज्ञानं । स्वयंप्रभू प्रमुस्वयं प्रधान। अपमानन ऋषि भानन दोष । अनंत वीरज चीरजकोर्ष ॥३॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्ध-संग्रह। गुरु आचारज उवझाय साध । तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेहवैराग धार । निरवांछि तपैं शिवपद निहार ॥ ६॥ गुण छत्तिस पश्चिस आठ वीस । भव तारन तरन जिहाजईस । गुरु की महिमा वरनी न जाय । गुरुनाम जपों मनव चनकाय ॥७॥ सोरठा-फीजे शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै 'धानत' सरधावान , अजर अमरपद भौगवै॥८॥ . ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा। बीस तीर्थकर पूजा भाषा। दीप अढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थ करवीस तिन लवकी पूजा कर्क, मनवचतन धरि शीट ॥१ ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थ करा! अत्र अवतरत अवतरत। संघोषट् । ॐही विद्यमान विशतितीर्थकरा! अन तिष्ठत तिष्ठत || *हों विद्यमान विंशतितीर्थकरा! अत्र मम सनिहिता भवत भवत । वषट् । ... इन्द्रफणींद्रनरेंद्र घंध, पद निर्मलधारी। .. योमनीक संसार, सार गुण हैं अधिकारी। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन ग्रन्थ संग्रह | क्षीरोदधिसम नीरसों ( हो ), पूजों तृषा निवार । सीमंधर जिन श्रादिदे, बीस विदेहमँकार ॥ श्रीजिनराज हो भव, तारणतरणजिहाज ॥१॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्ममत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ यदि वीस पुंज करना हो, तो इस प्रकारमंत्र पढ़ें ॐ ह्रीं सीमन्धर-युग्मंधर- वाहु- सुबाहु- संजात स्वयंप्रभ. ऋषभानंन - अनन्तवीर्य्य सुरप्रभ - विशाल कीर्ति वज्रधर- चन्द्रान. नं- चन्द्रवाह - भुजगम ईश्वर - नेमिप्रभ वीर - महाभद्र-देवयशाऽजितवीय्यैति विशितिविद्यमानतीर्थंकरेभ्यो जन्ममृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ तीन लोक के जीव, पाप आताप सताये । तिनको साता दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ वावन चंदनसों जजूं (हो) भूमनतपन निरवार । सीमं० ॥२॥ .. ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थंकरेभ्यो भवातापविनाशनाय - 'चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ यह संसार अपार महासागर जिनस्वामी तां तारे बड़ी भक्ति-नौका जग नामी ॥ तंदुल अमल सुगंधलों (हा ), पूजों तुम गुणसार । सीमं०॥३॥ ॐ० हीं विद्यमानविशंतितीर्थंकरेभ्यो अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् निर्व० ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्थ-संग्रह। सौरीप्रभ सौरीगुणमालं। सुगुण विशाल विशाल दयाल । वज्रधार भवगिरिवजर हैं। चन्द्रानन चन्द्रानन वर है ॥३॥ भद्रबाहु भद्रनिके करता । श्रीभुजंग भुजंगम भरता। ईश्वर सबके ईश्वर छाजें । नेमिप्रभु जस नेमि विराजै ॥४॥ वीरसेन वीर जग जान । महाभद्र महाभद्र बखाने । नमों जसोधर जसघरकारी। नमों अजितवीरज बलधारी॥५॥ धनुष पांचसै काय विराजै। आयु कोड़िपूरब सब छाजै। समवसरण शोभित जिनराजा भवजलतारनतरन जिहाजाराक्षा सम्यक रत्नत्रयनिधि दानी। लोकालोकप्रकाशक ज्ञानी। शत इन्द्रनिकरिवंदित साहै। सुरनर पशु सबके मन मोहै ॥७॥ दोहा। तुमको पूजे बंदना, करें धन्य नर सोय । 'द्यानत' सरधा मन धरे, सो भी धरमी होय ॥८॥ ॐहीं विधमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। अथ विद्यमानवीसतीर्थंकरोंका अर्घ । • उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्चरसुदीपसुधूपफलार्घकैः । धवलमङ्गलगानरवांफूले जिनगृहे जिनराजमहं यजे ॥१॥ __ॐ ह्रीं सीमंधरयुग्मंघरबासुबाहुसंजातस्वयंप्रभऋषमाननअनन्तवीर्यसूरप्रमविशालकीर्तिवजधरचन्द्राननचन्द्रबाहुभुजंगमईश्वरनेमिप्रभवीरसेनमहाभद्रदेवयंशमजित वीर्येति विशतिविद्यमानतीर्थकरेभ्योऽयं निर्वपामोतिस्वाहां ॥१॥ अकृत्रिम चैत्यालयोंका अर्थ कृत्याऽकृत्रिमंचारुचैत्यनिलयानित्यं त्रिलोकीगतान् .. · · चन्दे भावनव्यन्तरान्धु तिवरान्कल्पामरान्सर्वगान । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | 1 ॐ ह्रीं सम्यग्रतत्रय ! अत्र मम सन्निहितं भव भव । वषट् सोरठा क्षीरोदधि उनहार, उज्जल जल अति सोहना । जनमरोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजों ॥१॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय जन्मरोग विनाशनाय जलं निर्वपामि ॥१॥ चंदन केसर गारि, परिमल महा सुरंगमय । जन्मरोग० ॥२॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपाम० ||२|| तंदुल अमल चितार, वासमती सुखदासके । जन्मरो० ॥३॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामि० ॥३॥ मह फूल अपार, अलि गुंजें ज्यों श्रुति करें। जन्मरो० ॥४॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि० ॥४॥ } लाडू बहु विस्तार, चोकन मिष्ट सुगन्धता | जन्मरो० ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व० दीपरतनमय सार, जात प्रकाशे जगत में जन्मरो० ॥ ६ ॥ . ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्व० धूप सुवास विधार, चन्दन अर्घ कपूरकी । जन्मरो० ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि० ॥ ७ ॥ फलशोभा अधिकार, लोंग छुआरे जायफल । जन्मरे१० ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि० ॥८॥ आठदरव निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये | जन्मरो० ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं संम्यप्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामि० ॥ ॥ सम्यकदरसनज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्थ-संग्रहः। १७ । . पार उतारन जान, 'धानत' पूजौं व्रतसहित ॥१०॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्लत्रयाय पूर्णाध्यं निर्वपामि ॥१०॥ . दर्शनपूजा। दोहा-सिद्ध अष्टगुनमय प्रगट, मुक्तजीवसोपान । जिहविन ज्ञानचरित अफल, सम्यकदर्श प्रधान ॥१॥ ॐ ह्रौं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । । ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन ! अत्र मम सन्निहितं भव भव । वषट् । सोरठा । . नीर सुगन्ध अपार, त्रिपा हरै मल छय करै। सम्यकदर्शनसार, आठ अङ्ग पूजों सदा ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जल केसर घनसार, ताप हर सोतल करे। सम्यकदं० ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ अछत अनूप निहार, दारिद नाश सुख भरै। सम्यकद० ॥३॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥३॥ पहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करै । सम्यकद ॥४॥ ॐहीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ नेवंज विविध प्रकार, छुधा हरे धिरता करे। सम्यकद०॥५॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ दीपज्योति तमहार, घटपट परकाशै महा । सम्यकद०॥६॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्सम्यग्दर्शनाय दीपं निर्वपामोति स्वाहा ॥६॥ धूप घानसुखकार, रोग विधन जड़ता हरे। सम्यकद०॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्सम्यग्दर्शनाय धूपं निर्वपामीति. स्वाहा ॥७॥ श्रीफलमादि विथार, निहचै सुरशिवफल करे। सम्यकद० ॥८॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्थ-संग्रह। ॐ ह्रीं अष्टाइसम्यग्दर्शनाय फलं निर्वपामोति स्वाहा ॥८॥ जल गन्धाक्षत चार दीप धूप फल फूल चरु | सम्यकद०।। ॐ ह्रीं अष्टाइसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीतिः ॥ ९ ॥ जयमाला। दोहा-आप आप निहचे लखै, तत्त्वप्रीति व्योहार। रहितदोप पच्चीस है, सहित अष्ट गुन सार॥१॥ चौपाईमिश्रित गीता छंद। सम्यकदरसन रतन-गहीजै । जिन वचनमै सन्देह न कीजै । इहभव विभववाह दुखदांनीं । परभवभोग चहैं मत प्रानी॥ प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरुप्रभु परखिये। परदेश ढकिये धरम डिगते को सुथिर कर हरखिये। चहुसंघको वात्सल्य कीजे, धरमकी परभावना । गुन आठसों गुन आठ लाहकै, इहां फेर न आवना ॥३॥ ॐ ह्रीं अष्टाइसहितपश्चवींशतिदोषरहिताय सम्यग्द्शनाय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ ज्ञानपूजा। दोहा-पंचभेद जाके प्रगट, शेयप्रकाशन भान ॥ मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यकशान ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र अवतर अवतर। संवौषट् । ॐ हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र तिष्ठ तिष्ठ । । ॐ हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्रममसनिहितं भव भव विषट। सोरठा। नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै। सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥१॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। ॐ हीं अष्टविधसम्यग्शानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ जलकेसर धनसार, ताप हर शीतल करै । सम्यकशा०॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यगशनाय चन्दन निर्वपामोति स्याहा ॥२॥ अछत अनूप निहार, दारिद नाशे सुख भरे। सम्यकशा० ॥३॥ ॐ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षतनिर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ पहुपसुवाल उंदार, खेद हरै मन शुचि कर । सम्यकज्ञा० ॥४॥ ॐहीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ४॥ नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता कर । सम्यकशा० ॥५॥ ॐ हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य निर्वपामोति स्वाहा ॥५॥ दीपज्योतितमहार, घटपट परकाशे महां । सम्यकक्षा० ॥६॥ ॐ ही अष्टविधसग्यकशानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ धूप घानसुखकार, रोग विघन जड़ता हरे। सम्यकशा० ॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७॥ श्रीफल आदि विधार,निहवे सुरशिवफल करे। सम्यकशाoilet ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जल गन्धाक्षत चारु,दीप धूप फल फूल चरु सम्यकक्षा 10 ॐही अष्टविधसम्यग्हानाय अध्ये निवपामीति स्वाहा ॥ अथ जयमाला। दोहा। आप आप जानै नियत, ग्रंथपठन व्योहार। संशय विभ्रम मोह विन, अर्थग गुनकार ॥१॥ चौपाई मिश्रित गीता छन्द। सम्यकज्ञानरतन मन भाया। आगम तीजा नैन बताया। अक्षर शुद्ध अरथ पहिचानौ | अक्षर अरथ उभय सँग जानी । जानौं सुकालपठन जिनागम, नाम गुरुन छिपाइये। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। तपरीति गहि बहु मान देके, विनयगुन चित लाइये। ए आठभेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पन देखना। इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पटपेखना ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा॥२॥ चारित्रपूजा । दोहा । विषयरोगऔषध महा, दवकषायजलधार । तीर्थकर जाकौं धरै, सम्यकचारितसार ॥१॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र अवतर अबतर संवौषट् । ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ । ___ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र ममं सनिहित भव भव । वषट् सोरठा। नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरै मल छय करे। सम्यकचारित धार, तेरहविध पूजौं सदा ॥२॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निर्वपामीति० जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करै । सम्यकचा० ॥२॥ . ॐ ह्रौं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय चंदनं निर्वपामीति • अक्षत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै सम्यकचा० ॥३॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविघसम्यक्चारित्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा पहुपसुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करे। सम्यक० ॥४॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशधिसम्यक्नारित्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करै । सम्यक० ॥५॥ . ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नैवेद्य निर्वपामीतिक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रन्य-संग्रह। दीपजाति तमदार, घटपट परकाश मदा । सम्यकचा॥६॥ केहो प्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा धूप घान सुखकार, रोग विधन जड़ता हरै । सम्यकचा० ॥७ ॐ प्रयोदशविधसम्यक्रचारित्रायधूपं नियंपामीति स्वाहा॥७॥ श्रीफलमादि विचार, निद सुरशिवफल कर। सम्यका० ॥८॥ ॐही प्रयोदशषिधसम्यक्चारित्राय फलं निर्यपामोति स्वाहा। जल गंधासत चाय, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यक० ॥६॥ ॐ हा प्रयोदशचियसम्यक्चारित्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा अथ जयमाला। दादा-आपाप धिर नियत नय, तपसजम व्योहार । स्वपर दया दोनों लिये, तराइविध दुखदार ॥॥ चौपाई मिश्रित गीता छंद । सम्यकचारित रतन संभालो। पांच पाप तजिक व्रत पालो। पंचसमिति प्रय गुपति गोजानरमय सफल फरटु तन छीजे छो सदा तनको जतन यह, एक संजम पालिये। या कन्यो नरकनिगादमाहिं, कयायविषयनि टालिये। शुभकरमजीग शुघाट आया, पार हो दिन जात है। 'धानत' घरमको नाव यठो, शिवपुरी कुशलात है ॥२॥ ॐ ही प्रयोदशविधसम्यकचारित्राय महायं निपामोति. सय समुच्चय जयमाला। दोहा-सम्यकदरशन शान व्रत, इन रिन मुक्त न होय । अंध पंगु अरु आलसी, जुदे जले दव-लोय ॥१॥ चौपाई १६ मात्रा । ताप ध्यान मुधिर धन आवै । ता करमयंध फट जाये। तास शिवतिय प्रीति यदावाजी सम्यकरतनत्रय ध्यावे ॥२॥ ताको चढुंगतिके दुख नाहीं । सो न पर भवसागरमाहीं।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन - प्रन्थ- संग्रह। जनमजरामृतु दोष मिटावे । जो सम्यंकरतनत्र्यं ध्यावे ||३|| सोइ दशलक्षन को साधै। सो सोलहकारण भराधे ॥ सो परमातम पद उपजावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ||४|| सोई शक्रचक्रिपद लेई । तोनलोकके सुख विलसेई ॥ सोरागादिक भाव वहावे । जा सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥५॥ सोई लोकालोक निहारे । परमानंददशा बिसतारै ॥ आप तिरे औरन तिरवावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥६॥ दोहा । एकस्वरूपप्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय । तीनभेद व्योहार सब द्यानतको सुखदाय ||७|| ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( अर्घ्य के बाद विसर्जन करना चाहिये ) न्यामतकृत गजल । तुम्हारे दर्श बिन स्वामी मुझे नहिं चैन पड़ती है । छची वैराग्य तेरी सामने आंखों के फिरती है ॥ टेक ॥ निरा भूषण विगत दूषण परम आसन मधुर भाषण । नजर नैनोंको नाशाकी अनोसे पर गुजरती है ॥१॥ नहीं करमोंका डर हमको कि जब लग ध्यान चरणों में । तेरे दर्शनसे सुनते कर्म रेखा भी बदलती है ||२|| मिले गर स्वर्गकी संपति, अचंभा कौनसा इसमें तुम्हें जो नयन भर देखे गती दुरगतिकी टरती है ॥३॥ हजारों मूरते हमने बहुत सी गौर कर देखों शांति सूरत तुम्हारी सी नहीं नजरों में चढ़ती है ||४|| जगत सरताज हो जिनराज, न्यामतको दरश: दीजे, तुम्हारा क्या बिगड़ता है, मेरी बिगड़ी सुधरती है ||५|| Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - प्रन्थ-संग्रह | १६३ श्री नन्दीश्वर दीप ( अष्टानिका ) की पूजा | अडिल । सर्व परव में बड़ो अठाई पर्व है । नंदीश्वर सुर जाहिं लेंय वसु दरब हैं । हमें सकति सेो नाहिं इह कर थापना । पूजों निनगृह प्रतिमा है हित आपना ॥ १ ॥ 1 ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपेद्विपंचाशज्जनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपेद्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । श्रीनन्दीश्वदीपेद्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमा समूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । कंचनर्माणमय भृङ्गार, तीरथनीर भरा। तिहुँ धार दयो निरवार, जामन मरन जरा ॥ नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, घावन पुञ्ज करों । वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव धरों ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिन प्रतिमाम्या जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ भवतपहर शीतलवास, सो चन्दननाहीं । निर्वपामि ॥ १ ॥ प्रभु यह गुन कीजे सांच, भायो तुम ठांहीं ॥ नंदी० ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशज्जिनालय स्थजिनप्रतिमाभ्यो अक्षयपदप्राप्तये चन्दनं उत्तम. अक्षत जिनराज, पुञ्ज धरे सोहैं । सब जीते अक्षसमाज, तुम सम अरु को है ॥ नंदी० ॥ ३ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। निर्वपमि ॥६॥ अथ प्रत्येक अर्ष। चौपाई। अधोलोक जिनागमसाख । सात कोडि अरु चहतरलाख ॥ श्रीजिनभवनमहा छबि देइ । ते सव पूजौं वसुविध लेइ ॥१॥ ___ॐ ह्रीं मध्यलोकसम्बन्धिसप्तकोटिद्विसप्ततिलक्षाकत्रिम श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं निर्वपामि ॥१॥ मध्यलोकजिनमन्दिरठाठ । साढ़े चारशतक अरु आठ॥ ते सब पूजा अर्घ चढ़ाय । मनवचतन प्रयोग मिलाय ॥२॥ । ॐ ह्रीं मध्यलोकसम्बन्धिचतुःशताष्टपञ्चाशतश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्वपामि ॥२॥ अडिल। उर्द्धलोकमाहिं भवनजिन जानिये। लाख चौरासी सहल सत्यानव मानिये ॥ ताप धरि तेईस जजौं शिरनायके । कंचनथालमझार जलादिक लायक ॥३॥ ॐ ह्रीं ऊर्द्धवलोकसम्बन्धिचतुरशीतिसप्तनवतिसहस्त्र.. त्रयोविंशतिश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्यम् ॥ ३ ॥ गीताछन्द । वनुकोटि छप्पनलाख ऊपर, लहससत्याणक मानिये। सतच्यारौं गिन ले इक्यासी, भवनजिनवर जानिये ।। तिहुँलोकभीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करें । तिन भवन को हम अर्घ लेक, पूजि हैं जगदुख हरॆ ॥४॥ * ॐ ह्रीं त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटिपटपंचाशलक्षसतन:. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह | २०३ वतिसहस्रचतुःशतैकशीतिअकृत्रिम जिन चैत्यालयेभ्यः पूर्णार्थं निर्वपामि ॥ ४ ॥ अथ जयमाला | दोहा । ra चरणों जयमालिका, सुना भव्य त्रित लाय । जिनमन्दिर तिहुँ लोकके, देहुँ सकळ दरसाय ॥ १ ॥ पद्धढ़िबंद | जय अमल अनादि अनन्त जान । अनिमित जु अफीतम अचल मान | जय अजय अखण्ड अरूपवार | पर द्रव्य नहीं दीसें लगार ॥ २ ॥ जय निराकार अधिकार होय । राजत अनन्तपरदेश सोय । जय शुद्ध सुगुण अवगाहपाय | दशदिशामांहि इहविधि लखाय ॥ ३ ॥ 1 यह भेद अलोकाकाश जान । तामध्य लोक नभ तीन मान ॥ स्वयमेव बन्यो अविचल अनंत । अविनाशि अनादिजु कहत संत ॥ ४ ॥ पुरुषाकार ठाड़ो निहार । कटि हाथ धारि है पग पसार ॥ दच्छिन उत्तरदिशि सर्व ठौर राजू जुसात भाख्यो निचोर ॥५॥ जय पूर्व अपर दिशि घाटवाधि। सुन कथन कहूँ ताको जुसाधि ॥ लखि श्वभूतलें राजू जु सात । मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥ फिर ब्रासुरग राजु जु पांच भू सिद्ध एफ राजू जु सांच ॥ दश चार ऊंच राजु गिनाय । पटद्रव्य लये चतुकोण पाय ॥७॥ तसु वातवलय लपटाय तीन । इह निराधार लखियो प्रवीन ॥ नाड़ी तामधि जान खास । चतुकोन एक राजू जु व्यास ॥८॥ राजू उतंग चौदह प्रमान । लखि स्वयंसिद्ध रचना महान ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। तामध्य जीव त्रस आदि देय । निज थान पाय तिष्ठे भलेया॥ लखि अधोभागमें शुभ्रथान । गिन सात कहे आगम प्रमान ॥ षटथानमाहि नारकि बसेय । इक शुभ्रभाग फिर तीन भेय ॥१०॥ तसु अधोभाग नारकि रहाय पुनि ऊईभाग द्वव थान पाय॥ बस रहे भवन व्यंतरजु देव । पुर हयं छजै रचना स्वमेव॥१॥ तिह थान गेह जिनराज भाख । गिन सातकोटि बहतरजुझाव॥ ते भवन नमों मनवचनकाय । गतिशुभ्रहरनहारे लखाय ॥१२॥ पुनि मध्यलोक गोलाकार । लखि दीप उदधिरचना विचार॥ गिन असंख्यात भाख जुसंत । लखिशंभुरमन सबके जुअंत॥१३॥ इक राजुव्यास में सर्व जान । मधिलोकतनों इह कथन मान ॥ सबमध्य दीप जंवू गिनेय । त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥१४॥ इन तेरहमें जिमधाम जान । सतचार अठावन हैं प्रमान । खग देव असुर नर आय आय । पद पूज जाय शिर नाय ॥१५॥ जय उर्द्धलोकसुरकल्पवास । तिहँ थान छजे जिनभवन खास ॥ जय लाखचुरासीपलखेय । जय सहस सत्याणव और ठेया॥ जय बीसतीन फुनि जोड़ देय । जिनभवन अकोतम जान लेय ॥ प्रतिभवन एक रचना कहाय । जिनषिव एकसत आठ पाय॥१७॥ शतपंच धनुष उन्नत लसाय । पदमासनजुत वर ध्यान लाय॥ शिरतीनछत्रशोभितविशालत्रय पादपीठ मणिजडितलाल॥१८ भामंडलकी छवि कौन गाय । फुनि चवर दुरत चौसठ लखाय॥ . जय इंदुभिरव अदभुत सुनाय । जयपुष्पवृष्टि गंधोदकाय ॥१६॥ जय तमअशोक शोभा भलेय । मंगल विभूति राजत अमेय ॥ बटतूप बजे मणिपाल पाय । घटधूपधून दिग सर्व छाय ॥२०॥ जय केतुपंक्ति सोहै महान । गंधर्वदेव गुन करत गान ॥ मुर जनम लेत लखि अवधि पाय । तिस थान प्रथम पूजन कराय ॥२१॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन-प्रन्थ-संग्रह। २०५ - जिनगेहतणा चरनन अपार । हम तुच्छवुद्धि किम लहत पार॥ जयदेव जिनेसुर जगत भूप । नमि नेम' मंगै निज देहरूपा२२॥ दोहा। तीनलोकमें सासते, श्रीजिनभवन विचार ॥ भनवचतन करिशुद्धता, पूजे अरघ उतार ॥ २३ ॥ ॐ ह्रीं त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटिपटपंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहलचतुःशतकाशीतिअकृत्रिमश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्वपामि ॥ २३ ॥ (यहां विसर्जन भी करना चाहिये। कवित्त । तिहुँ जगमीतर श्रीजिनमंदिर, बने अकोतम अति सुखदाय। नर सुर खग करि वंदनोक जे, तिनको भविजन पाठ कराय । धनधान्यादिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय । चक्री सुर खग इंद्र होयके, करम नाश सिवपुर सुख थाया२४॥ ( इत्याशीर्वादाय पुप्पांजलि क्षिपेत् ।) देव पूजा। दोहा। प्रभु तुम राजा जगतके, हमें देय दुम्न मोह । तुम पद पूजा करत हूँ, हम करुना होहि ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवन् अत्र अवतरावतर । संवौषट् । * ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्री संवोपडिति देवोहदेशेन हवित्यागे। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन-प्रन्ध-संग्रह। जिनेन्द्रभगवन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ । 3.31+ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपटचत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवन अन मम सन्निहितो भव भव ! वपट् ।। छंद त्रिभंगी। बहु तृषा सतायो, अति दुख पायो, तुमपै आयो जल लायो। उत्तम गंगा जल, शुचि अति शीतल, प्राशुक निर्मल, गुन गायो। प्रभु अंतरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी दोप हरो। यह अरज सुनील, ढील न कीजै, न्याय करीजै, दया धरो ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोपरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवद्भ्यो जन्माजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ अघतपत नरिंतर, अगनिपटंतर, मो उर अंतर, खेद कर्यो। लै वावन चंदन, दाहनिकंदन, तुमपदचंदन, हरष धर्यो॥प्रभु०॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोपरहितपट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्यो भवतापनाशाय चन्दनं ॥ २॥ औगुन दुखदाता, कहयो न जाता, मोहि असाता, बहुत करें। दंदुल गुनमंडित,अमल अखंडित,पजत पंडित,प्रीति धरौप्रभु० ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशसद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योअक्षयपदप्रातये अक्षतान निर्यपामीति ॥ ३॥ सुरनर पशु को दल, काममहावल, वात कहत छल, मोह लिया। ताके शरलाऊंफूल चढ़ाऊँ, भगति बढ़ाऊं,खोल दिया। प्रभु० ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योकामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥ ४॥ + 3: : इति वृहद्ध्वनौ । वदिति देवद्विदेश्यकहविल्यागे। .. . . हविल्यागे। . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २०७ सब दोषनमाहीं, जासम नाहीं, भूख सदा ही मो लागे। सद घेवर वावर, लाडू वहुधर, थार कनक भरतुमागें ॥ प्रभु० ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योक्ष द्रोगनाशाय नैवेद्य ॥५॥ अज्ञान महातम, छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम, दुख पावै । तम मेटनहारा, तेज अपारा, दीप संवारा, जस गावै ॥ प्रभु०॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीजिनेभ्योमोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामि ॥ ६॥ इह कर्म महावन, भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत है । कृष्णागरुधूपं, अमलअनूपं, सिद्धस्वरूपं, ध्यावत है । प्रभु अंतरयामी, त्रिभुवननामी, सब के स्वामी, दोपहरो । यह अरज सुनीजै, ढील न कीज, न्याय करीजै, दया धरो॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योअष्टकर्मदहनाय धूपं० ॥ ७॥ सबतें जोरावर, अंतराय अरि, सुफल विघ्न करि डारत हैं। फलपुंज विविध भर,नयनमनोहर, श्रीजिनधरपद धारत हैं ॥प्र० ॐ ह्रीं अष्टदशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्री. जिनेभ्योमोक्षफलप्राप्तये फलं० ॥ ८ ॥ आठौं सुखदानो, आठनिशानी, तुम ढिग आनी, बारन हो। दीनननिस्तारन,अधमउधारन, धानत.'तारन,कारन हो॥प्रमु० ॐ हीं अष्टादशदाशरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवद्न्येऽनर्घपदप्राप्तयेभनिर्वपामीतिस्वाहा ॥६॥ प्रय जयमाला। दोहा। गुण अनन्त को कहि सके, छियालीस जिनराय। प्रगट सुगुन गिनती कहूं, तुम ही होहु सहाय ॥ ५ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन-प्रन्थ-संग्रह। चौपाई (१६ मात्रा) एकं ज्ञान केवल जिन स्वामी । दो आगम अध्यातम नामी॥ तीन काल विधि परगट जानी। चार अनन्तचतुष्टय ज्ञानी ॥२॥ पंच परावर्तन परकासी। छहों दरवगुनपरंजयमासी । सातभंगवानी परकाशक | आठों कर्म महारिपुनाशक ॥ ३ ॥ नव तत्त्वनकै भावनहारे । दश लच्छनसौं भविजन तारे। ग्यारह प्रतिमा के उपदेशी । बारह सभा सुखी अकलेशी ॥४॥ तेरहविधि चारित के दाता | चौदह मारगना के ज्ञाता ॥ पंद्रह भेद प्रमादनिवारी । सोलह भावन फल अधिकारी ॥॥ तारे सत्रह अंक भरत भुव । ठार थान दान दाता तुव ।। भाव उनीस नुकहे प्रथम गुन । वीस अंकगणधरजीकी धुन॥६॥ इकइस सर्व घातविधि जाने । बाइस बध नवम गुन थाने । तेइस निधि अरु रतन नरेश्वर सोपूजै चौवीस जिनेश्वर ॥७॥ नाश पचीस काय करी हैं। देशघाति छब्बीस हरी हैं। तत्त्व दरब सत्ताइस देखे । मति विज्ञान अठाइस पेखे ॥॥ उनतिस अंक मनुष सब जाने । तीस कुलाचल सर्व बखाने । इकतिस पटल सुधर्म निहारे । बत्तिस दोष समाइकटारे ॥॥ तेतिस सागर सुखकर आये। चोतिस भेद अलब्धि बताये। पैंतिस मच्छर जप सुखदाई । छत्तिस कारन-रीति मिटाई॥०॥ सैंतिस मग कहि ग्यारह गुनमें । अठतिस पद लहि नरक भपुनमें उनतालीस उदीरन तेरम । चालिस भवन इंद्र पूजें नम ॥१६॥ इकतालीस भेद आराधन । उदै वियालिस तीर्थंकर भन ॥ तेतालीस बंध ज्ञाता नहिं ! द्वार चवालिस नर चौथेमहि॥१२॥ पैतालीस पल्य के अच्छर । छियालीस बिन दोष मुनीश्वर ॥ नरक उदैन छियालील मुनिधुन । प्रकृति छियालीस नाश दशम गुन ॥ १३॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | २०६ छियालीसघन सजु साज भुव । मंक छियालीस सिरलो कहिकुव भेद छियालीस अंतर तपवर । छियालीस पूरन गुनजिनवर ॥१४॥ अडिल्ल । मिथ्या तपन निवारन चंद समान हो । मोहतिमिर चारनको कारन भान हो ॥ काल कपाय मिटावन मेघ मुनीश हो । 'द्यातन' सम्यकरतनत्रय गुनईश हो ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवभ्यो पूर्णाऽघं निर्वपामि ॥ (पूर्णायके वाद विसर्जन करना चाहिये ) अति श्रीजिनेन्द्रपूजा समाप्ता । सरस्वती पूजा । दोहा । जनम जरा मृतु छ्य करे, हरै कुनय अड़रीति । भवसागरों ले तिरें, पूर्जे जिनवचमीति ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिन मुखोद्भवसरस्वतिवाग्वादिनि ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितेा भवभव । । वषट् । त्रिभंगी । छीरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखगंगा । भरि कंचन भारी, धार निकारी तृखा निवारी, हिंत चंगा ॥ तीर्थंकरकी धुनि, गनधरने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरंबानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनं मानी, पूज्य भई ॥ १ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५.. जैन-ग्रन्थ-संग्रह। मागे आचारजने संस्कृत + पूजा रची, ताके शवद अरथ, कोई समझे ना बनायके ॥ . भाई पंडित लोग, भाषा पढ़ी पूजा रची, ताकी है थिरता नाहि, वांचनकी गायके। तातें यह छोटी करो, और चित्त नाहिं धरी, भैया इक घड़ी यांचो, आछो मन ल्यायके॥१८॥ शैलीके भाईजी गुलाबचन्द्र पण्डित जान । दुलीचन्द्र दयाचन्द्र, खूबचन्द्र जानिये। सिंगई भगोलेलाल, भाई, उमराव जान, लीलाधर सुखानन्द, और भी प्रमानिये ॥ आय जिन मन्दिर में, शास्त्र सुनें प्रोति सेतो, घड़ी पहर बैठ, घर में वखानिये। धरम की चर्चा करें, करम की भी आन परे, छोड़ के कुधर्म'चन्द्र'धरम हृदय आनिये ॥ ११ ॥ दोहा-पंचमकाल कराल में, पाप भयो अति जोर। कडू धरम रुचि राखिये, 'चन्द्र' कहत कर जोर ॥२०॥ वसत जबलपुर नगर में, चलत सुनिज कुल रीति । राखत निशि वासर सदा, जैन धर्म से प्रीति ॥ २१॥ संवत एक सहस्र नव, शतक सुभसत्ताईस।। भादों कृष्ण त्रयोदशी, बुद्धिवार सु गणीश ॥ २२ ॥ इतिपंचपरमेष्ठी विधान । +श्रीयशोनंद्याचार्यकृत 'पंचपरमेष्ठिपजा' वि० सं. १९९७ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २५१ श्री सम्मेदशिखरपूजाविधान। दोहा। सिद्धक्षेन तीरथ परम, है उत्कृष्ट सु थान ॥ शिखर सम्मेद सदा नमी, होय पाप की हान ॥१॥ अगनित मुनि जहं ते गए, लोक शिखिर के तीर। तिनके पद पंकज नमो, नासै भव की पीर ॥२॥ अडिल्ल छद। है उडमल यह क्षेत्र सु मति निर्मल सही। परम पुनीत सुठोर महा गुन की मही ॥ सकल सिद्धि दातार महा रमनीक है। चन्दौ निजसुख हेत अचल पद देत है ॥३॥ सोरठा। शिखिर सम्मेद महान | जग में तीर्थ प्रधान है। महिमा अद्भुत जान । अल्पमती मैं किम कहो ॥४॥ पद्धड़ी छद। सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है। अति सु उज्जल तीर्थ महान है। करहि भकिसुजेगुनगाइकै । वरहि शिवसुरनरसुखपाइ। अडिल्ल छन्द।। सुर हरि नरपति आदि सुजिन वन्दन करें। भवसागर ते तिरे नहीं भवधि परें । सुफल होय जी जन्म सुजे दर्शन करें। जन्म जन्म के पाप सफल छिन में ररें॥ पद्धडि छन्द। श्री तीर्थकरजिन घर सुवीस । अरु मुनि असंख्य सवगुननईस। पहुंचे जह से केवल सुधाम । तिन सबकी अव मेरी प्रणाम ॥७॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जन-ग्रन्य-संग्रह। गीतका छंद। सम्मेद गड़ है तीर्थ भारी, सबन के उज्जल करें। चिरकाल के जे कर्म लागे, दरस ते छिनमै रै।. है परम पावन पुन्य दाइक अतुल महिमा जानिये। है अनूप सरूप गिरि वर तासु पूजा डानिये ॥६॥ दोहा। श्री सम्मेद शिखर महा । पूजों मन वच काय। हरत चतुर्गति दुःख को, मन वांछित फलदाय ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अत्रावतरावतरसंवौषट् इत्याहाननम् परिपुष्पाञ्जलिं लिपेत्। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्ध क्षेत्रन्यो अत्र तिष्ठ तिष्ठ :: स्थापनम् परि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अब मम् सनिहितो भव भव वषट् सनिधीकरणं परि पुष्पंजलिं क्षिपेत् । प्रक। अडिल चन्द-झीरोदधि समनीर सु उज्जल लीजिये। कनक कलस मैं भरके धारा दीजिये । पूजो शिखिर सम्मेद सुमन वचकाय चू । नरकादिक दुःख टरें अचल पद पाय जू॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धिोत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाथ जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ पयसी घिस मलयागिर चन्दन ल्याइये । केसर आदि कपूर सुगंध मिलाइये। पूजो शिखिर० । ॐ ही श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो संसारताप विनासनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ तंदुल धवल सु उज्जवल खासे धोय के। हम वरन के थार भरौं शुचि होय के ॥ पूजौं शिखिर 1ॐ ह्रीं श्री सम्मेहशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्वामीति Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह | २५३ स्वाहा ॥ ३ ॥ फूल सुगंध सु ल्याय हरष सौ आन चड़ायौ । रोग शोक मिट जाय मदन सब दूर पलायौ ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्येा कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ षट् रस कर नैवेद्य कनक थारी भर ल्यायो ॥ क्षुधा निवारण हेतु सु हुजौ मन हरपायो ॥ पूजौ शिखिर० ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रे - भ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य ं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ लेकर मणिमय दीप सुज्योति उद्योत हो । पूजत होत स्वज्ञान मोहतम नाश हो ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्रीसम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ दस विधि धूप अनूप अग्नि में खेवहूँ । अष्टकर्म कौ नाश होत सुख पावह ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्रीसम्मेद - शिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्मदहनाथ धूपं निर्वपामीति स्वाहा | ७| भेला लोंग सुपारी श्रीफल ल्याइये । फल चढ़ाय मन वांछित फल सु पाइये ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जल गंधाक्षित फूल सु नेवज लीजिये । दीप धूप फल लेकर अर्ध चढ़ाइये ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्ताय अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ पद्धड़ी, छन्द-श्रीविसति तीर्थंकर जिनेन्द्र । अरु है असंख्य बहुते मुने ॥ तिनकौं करजोर करों प्रणाम । तिनकों पूजो तज सकल काम || ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्ताय अघं । द्वार योगीरायसा-श्री सम्मेदशिखिर गिर उन्नत शोभा अधिक प्रमानों । विंशति सिंहपर कूट मनोहर अद्भुत रचना जानौ ॥ श्री तीर्थंकर बीस तहांते शिवपुर पहुंचे जाई । तिनके पद पंकज युग पूजौ प्रत्येक अर्ध चढ़ाई । ॐ ह्रीं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन-नन्य-संग्रह। श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ प्रथम सिद्धवरकूट मनोहर आनंद मंगलदाई । अजित प्रभु जह ते शिव पहुंचे पूजो मनवचकाई । कोड़ि अस्सी एक अर्व मुनि चौवन लाख सुगाई । कर्म काट निर्वाण पधारे तिनको अर्घ चढ़ाई। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धटते श्री अजितनाथ जिनेन्द्रादि एक अर्व अस्सी कोड़ि चौवन लाख मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अर्धं निवपामोति स्वाहा ॥२॥ धवल कूट सो नाम दूसरी है.सवको सुखदाई। संभव प्रभुलो मुक्ति पधारे पाप तिमिर मिटजाई । धवलदत्त हैं आदि मुनीश्वर नव कोडाकोडि जानौ लक्ष बहत्तर सहस बयालिस पंच शतक रिष मानौ ।। कर्म नाश कर अमर पुरी गए वंदौ सीस नवाई । तिनके पद युग जलो भावसौ हरण हरष चितलाई ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर धवल कूटतें संभवनाथ जिनेन्द्रादि मुनि नव कोड़ाकोडि बहत्तर लाख व्यालिस हजार पांच से मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्धं ॥३॥ चौपाई-आनंद कूट महा सुखदाय । प्रभु अमिनन्दन शिवपुर जाय । कोडाकोड़ि वहत्तर जानौ । सत्तर कोड़ि लान छत्तीस मानौ । सहस बयालीस शतक जु सात। कहें जिनागम मैं इस भांत । ऐरिष कर्म काट शिव गये, तिनके पद युग पूजत भये ॥ॐ ह्रीं श्री आनन्दकूटतें अभिनन्दननाय जिनेन्द्रादि मुनि वहत्तर कोडाकोडि अरु सत्तर कोड़ छत्तीस लाख व्यालीस हजार सातसै मुनि सिद्धपद प्राप्ताय अघ निर्व.. पामोति स्वाहा ॥धा अडिल्ल छन्द-अवचल चौथौ कुट महा सुन धाम जी । जहं ते सुमति जिनेश गये निर्वाणजी।। कोड़ाकोडि एक मुनीश्वर जानिये । कोडि चौरासी लाख बहत्तर मानिये ॥ सहस इक्यासी और सातसे गाइये । कर्म Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | २५५ काट शिव गये तिन्हे सिर नाइये ॥ सेो थानिक मे पूजौ मन वच काय जू । पाप दूर हो जाय अचल पद पायजू ॥ ॐ हौं श्री अवचल कूटते श्री सुमति जिनेन्द्रादि मुनि एक कोड़ाकोड़ि चौरासी कोड़ि बहत्तर लाख इक्यासी हजार सात सै मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्ये अर्घं ||५|| भडिल्ल छन्द मोहन कूट महान परम सुंदर कहौ । पद्मप्रभु जिनराय जहां शिव पद लहौ || कोड़ि निन्यानवे लाख सतासी जानिये । सहस तेतालिस और मुनीश्वर मानिये । सप्त सैकड़ा सत्तर ऊपर बीस जू । मोक्ष गये मुनितिन को नमि नित शीश जू कहें जवाहरदास सुदोय कर जोरकै । अविनासी पद देउ कर्म न खायकें ॥ ॐ ह्रीं श्री मोहन कूटतें श्री पदुमप्रभु सुनि निन्यानवे क्रोडि सतासी लाख तेतालिस हजार सातसे संताउन मुनि निर्वाण पद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अघं ||६|| सोरठा - कूट प्रभात महान । सुंदर जन मणि मोहनौ । श्री सुपार्श्व भगवान, मुक्ति गये अघ नाश कर । कोड़ाकोड़ी उनंचास कोड़ि चौरासी जानिये | लाख बहत्तर जान सात सहस भरु सात सै | और कहे व्यालीस । जंह तें मुनि मुक्ति गये । तिनकों नम नित सीस दास जवाहर जोरकर ॥ ॐ ह्रीं प्रभात कूटतें श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्रादि मुनि उनंचास कोड़ाकोड़ी बहत्तर लाख सात हजार सातसै व्यालीस मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्ध ||७|| दोहा - पावन परम उतंग हैं। ललित कूट है नाम ॥ चंद्र प्रभु मुक्ते गये, वंदो आठौ जांम ॥ नवसै अरु वसु जानियो । चौरासो रिषि मान । क्रौड़ बहत्तर रिषि कहे । असी लाख परवान । सहस चौरासी पंच शत। पंचवन कहे मुनीश । वसु कर्मन कौ नाशकर । पायेो सुखको कंद ॥ ललित कूटते शिव गये । बंद सीस 1 । I I 4 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। नवाय ॥ तिनपद पूजौ भाव सौ, निज हित अर्घ चड़ाय ।। ॐ ह्रीं ललितकूट से श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रादि मुनि नवसै चौरासी अर्व बहत्तर क्रोड़ अस्सीलाख चौरासी हजार पांचसै पचवन मुनि सिद्धपद प्राप्ताय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा ॥८॥ पद्धडी छंद । सुबरनभद्र सो कूट जान । जह' पुष्पदंतको मुक्त थान ॥ मुनि कोड़ाकोड़ी कहै जु भाख । अरु कहे निन्यानवे लाख चार ॥१॥ सौ सात सतक मुनि कहे सात । रिपि असी और कहे विख्यात ।मुनि मुक्ति गये वसु कर्म काट । वंदी कर जोर नवाय माथ ॥२॥ॐ ह्रीं श्री समभकूटते पुष्पदंत जिनन्द्रादि मुनि एक कोड़ाकोड़ी निन्यानवै लाख सात हजार चारसै अस्सीमुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घा सुंदरी छंद-सुभग विद्युतकूट सु जानिये । परम अद्भुतता परमानियै ॥ गये शिवपुर शीतलनाथजी नमहुँ तिन पद कर धरि माथजी । मुनिजु कोड़ाकोड़ी अष्टहु । मुनि जो कोड़ी ब्यालिस जान हू ॥ कहे और जु लाख बत्तीस जू । सहस ब्यालिस कहे यतीश जू और तहसै नासै पांच सुजानिये । गये मुनि लिवपुरकों और जमानिये ॥ करहि पूजा जे मन लायकें। धरहि जन्मन भवमें आयके।। ॐहीं सुभग विद्यत कूटते श्री शीतलनाथ जिनेंद्रादि मुनि अष्ट कोडाकोड़ी व्यालीस लाख बत्तीस हजार नौसै पांच मुनि सिद्धपद् प्राप्ताय सिद्धिक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१० ढार योगीरसा-कूटजु संकुल परम मनोहर श्रीयांस जिनराई । कर्म नाश कर अमरपुरी गये, बंदी शीस नवाई | कोडाकोड़ जुकहै क्यानवै क्ष्यान, कोड़ प्रमानौ ॥ लाख क्ष्यानवै साढ़े नवसै, . इकसठ मुनीश्वर जानो। ताऊपर ब्यालीस कहे हैं श्री मुनिके गुन गावै। त्रिविध योग' कर जो कोई पूजै सहजानंद पद पावै॥ ॐ ह्री. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २५७ संकुल फटत श्रीयांसनाथ जिनेन्द्रादि मुनि क्ष्यानवे कोड़ाकोदी क्ष्यानचै मोड़ क्ष्यानवे लाख सादेनी हजार व्यालीस मुनि सिद्ध पद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१॥ कुसुमलता चंद्र-श्री मुनि संकुल कूट परम सुंदर सुखदाई । विमलनाथ भगवान जहां पंचम गति पाई ॥ सात शतक मुनि और प्यालिस जानिय । सत्तर कोड़ सात लाख हजार छै मानिये ॥ दोहा-अष्ट फर्मको नाश कर, मुनि अष्टम क्षिति पाय ॥ निनको में वंदन फरों, जन्ममरण दुम्न जाय ॥ ॐ ह्रीं थी संकुलटत श्री विमलनाथ जिनेंद्रादि मुनि सत्तर कोड़ सात लाख छ हजार सातसै व्यालीस मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिदिक्षेभ्यो अ॥१२॥ अअिल-कुट स्वयंप्रभु नाम परम सुंदर फही। प्रभु अनंत जिननाथ जहां शिवपद कही। मुनि जु कोदाकोदी क्ष्यान जानिये । सत्तर कोड़ जु सत्तर लाख घान्नानिये । सत्तर सहस जु और सातसे गाइये । मुक्ति गये मुनि तिन पद शील नवाइये । कदे जवाहर दास सुनी मन लायर्फ । गिरवरकों नित पूजी मन हरपायकै ॥ ॐ ह्रीं स्वयंभू करते श्री अनंतनाथ जिनेंद्रादि मुनि झ्यानवै कोड़ाफोढ़ी सत्तर लाग्न सात हजार सातसै मुनि सिद्धपद प्रताय सिद्विक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१॥ चौपाई-कूट सुदत्त महा शुभ जानों। थी जिनधर्म नाथको थानी । मुनि तु कोड़ाकोड़ी उन तीस और कहे ऋषि फोड़ उनीस ।। लाख तु नव्वै सहस नौ सानों । सात शतक पंचा नव मानों | मोक्ष गंये वसु कर्मन चूर। दिघस रेल तुमही भरपूर ।। ॐ ह्रीं श्री सुदत्त फूटते श्री धर्मनाथ जिनेन्द्रादि मुनि उनतील फोडाकोडी उनीस कोड़ नव्यं लान नौ हजार सातसे पंचानवै मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्यपामिति स्याहा ॥१४ा है प्रभासी फूट Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन-अन्य-संग्रह। कातिक श्याम अमावस शिवतियं, पावापुर₹ वरना । गनफ-.. निवृद जजै तित पहु विधि मैं पूजभवहरनामोहिराखौ०॥५॥ ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावास्यायां मोक्षमङ्गलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ . . अथ जयमाला । छंदहरिगीता ( २८ मात्रा) गनधर असनिधर चक्रधर, हरघर गदाधर वरवदा । अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ दुखहरन आनंदभरनं तारन, तरन चरन रसाल हैं।. .. सुकुमाल गुन मणिमाल उन्नत, भालकी जयमाल हैं ॥१॥ . छंद धत्तानंद (२१ मात्रा). जय त्रिशलानंदन हरिकृतवंदन, जगदानंदनचंद वरं। .. . भवतापनिकंदन तनमनवंदन, रहितसपंदन नयन धरं ॥२॥ छंद तोटक। जय केवलभानुकलासदनं । भविकोकविकाशन कंजवनं. : जगजीत महारिपु. मोहहरं । रजज्ञानगांबरचूरकर ॥१॥ गर्मादिक मंगल मंडित हो। दुख दारिदको नित खंडित हो। जगमाहिं तुमी सत पंडित हो। तुमहीभवभावविहंडित हो॥५॥ हरिवंससरोजनकों रवि हो। बलवंत.महंत तुमी कवि हो॥ . लछि केवल धर्मप्रकाश कियौ।भवलौंसोई मारगराजतियो॥३॥ . पुनि आपतने गुणमाहिं संही। सुर मग्न रहे जितने सब ही। विनकी वनितागुण गावत हैं।लय ताननिसों मनभावत हैं। पुनि नाचत रंग अनेक भरी। तुव भक्तिविषपा एम घरी। झन झननं झनन भनन । सुर लेत. तहाँ तननं तननं ॥५॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २६७ - - घननं धननं घनघंट पर्ने । दुमदं द्वमदं मिरदंग सजें। गगनांगणगर्भगता सुगता।ततता ततता अतता वितताक्षा धृगतां धुगतां गति वाजत है।सुरताल रसाललुछाजत है। सननं सननं सनन नभमैं । इकरूप अनेक जु धार भमैं ॥७॥ करनारसुचीन पजायतु हैं। तुमरीजस उनलगावतु हैं। करतालचि फरतालधर । सुरताल विशाल जु नाद करें। इन आदि अनेक उछाहभरी। सुरमकि फर प्रभुजी तुमरी। तुमही जगजीवनकेपितु दो। तुमही दिन फारणके हितहा तुमही सय विघ्न विनाशन हो। तुमही निज आनंदभासन हो। तुमहीं चितचिंतितदायफ हो जगमाहिं तुमीसबलायकहो।१० तुमरे पनमंगलमाहि सही। जिय उत्तम पुण्य लियौ सय ही। हमको तुमरी सरनागत है। तुमरे गुनमैं मन पागत है ॥१६॥ प्रभुमा हिय आपसदावसिये।जबलों बलुकर्म नहीं नसिये। तबलातुमध्यान हिये वरतो तचलौंधुतचिंतन चित्तरतो॥१२॥ तवलींवत चारित चाहत हों तबलौं शुभ भाव सुगावत हों। तपटींसतसंगति नित्य रही। तवलौंममसंजम चित्तगहो॥१३ जबलीनहिनाश फरों अरिको। शिवनारिष समताधरिको। यह धो नवली हमको जिनजी। हम जाचत हैं इतनीसुनजी॥१४ छंद धत्तानन्द । श्री वीर जिनेशा नमित सुरेशा, नाग नरेशा भगति भरा। 'वृन्दावन ध्या' वांछित पा शर्मवरा ॥ १५॥ ॐ ही श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। दोहा। श्री सनमति के जुगल पद, जो पूजहि धर प्रीति ! वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक नवनीत ॥१६॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६८ जैन-अन्थ-संग्रह। धारेंसंस्कृत । जयमालासहित । वसन्त तिलकाबन्द। ... यःपांडुकामल शिलागतमादि देव । सिस्नापयामि . वरान्सुरशैलभूद्धिन । कल्याणमीश्वर हमक्षित तोयपुष्पैः । सम्मावयामिपुरएवतदीपविम्वम् ॥ १॥जिन विम्व स्थापन ॥ सत्पल्लवार्चितमुखाकलधौतरूप्य । तम्रारकूटघटितापयर्स सपूर्णान् । संचाजतो मिवगताचतुरासमुद्रान् । संस्थापयामि कलशां जिनदेदिकान्ते । कलश स्थापनम् ॥ २॥ दूरावनान. सुरनाथकिरीटकोटी | संलग्नरलकिरणाक्षविधूसरांगी। प्रस्वेदतपरिमलासुकतेप्रेकोष्टं । भक्त्याजलैजिनपतीवदुधाभिषेक ॥ ३॥ जलस्नानं ॥ भक्याललाटतटदोसनिवेसताचे। हस्तीस्तुतारवरासुरमतिनाथै । तत्कालपेलतमहक्षुरसंस्थधारा | सद्यापुनातुजिनविम्वगतैवजुख्यान ॥ ४॥ इक्षरसला. . पर्न ॥ उत्कृष्टवर्णनवहेमरसाभिरामा । देहप्रभावलयसंकमलू...' प्रदीस्थां । धाराघृतस्यशुभगन्धगुणानुमेयं । वन्देहतंसुरमिसं... स्नपनंकरोमिः ॥५॥ घृतस्नापनं । सम्पूर्णशारदशशांकमरीच जालैः । सद्यौरिवात्मयशसास्विलाप्रवाहै । क्षीरै जिनाशुचित रैरभिपिंचमानं । सम्पादयन्तिममिचिन्तसमीहितानं ॥६॥ . दुग्धस्नापनं ॥ दुग्धाध्विवीचिचयलचितफेनराशै । पांडुत्व .. कान्तिमिवधारयतामतीचा । दध्यागताजिनपतेप्रतिमसुधारा। सम्पादितंसयदिवांक्षित सिद्धयेव ॥ ७॥ दधिस्नापर्ने । संस्ना । पितस्यघृतदुग्धदधिप्रवाहै । सर्वाभिरौषधिभिरहतउज्ज्वला . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २६६ भी। उदर्ततस्यविदधामभिपेकमेला । कालेयफुकुमरसोत्कट वारिपूरै॥८॥सवापधीस्नापनं ॥ इप्टमनोरथसतैरितभव्य पुस । पूर्णेसुवर्णकलशैनिखिलावसानसन्सारसागरविलंघनहे. तुसेती। मप्लावरोत्रभुवनाधिपतिजिनेंद्र ॥६॥ चतुरफलश स्नापन । द्रव्यरनल्पधनसारचतुरासमुद्र । रामोदवासितस. मस्तदिगन्तरात्म। मिधीकृतेनपयसाजिनपुंगवानं । त्रैलोक्य पाचनमहंस्नपनंकरोमिः ॥१०॥ गन्धोदकस्नापनं ।। श्लोक ।। निर्मलःनिर्मलीकरणं पवित्रं पापनासन । जिनगन्धोदकंवन्दे । सर्वपापविनाशनं ॥ ११ ॥ गन्धोदकवन्दनं ।। अथ जयमाला ।। अन्तमाह जिनेश्वर हि परमेश्वर इन्द्रन्हवनसंजोयऊ । नव देखिविलम्पो दियराजम्पो सुरंपरंपरयोलियऊ । पद्धड़ीछन्द ।। शिमफलशदरवालाजिनेंद्रातसुमन में जम्पोसुरवरेन्द्र । दिहो. जिनेन्द्रयालोशरीर । तरमेरुअंगूठाइनोवीर ॥१॥ डगमगो मेर कम्पो सुरेश । मोराधिधीरजाने जिनेश । सुरसाथ सुरेश भये अनंद । लोस नाथ जहां भुवन चन्द्र ॥२॥ जय जय पालोपन भुवन मन्य । कन्दर्प दलन निज मुक्ति पंथ । सुरनर पतियंजर गुणहऋद्धि । तुम दर्शन स्वामो होटुसिद्ध ॥३॥ तहां इन्द्र मुन्छीन कराययत्र ते तीसफोटि शिरधरें .क्षत्र । ढारघटसहस्ररुअष्टनार । क्षीरोदधि से ला सुरसुधीर ॥ ४॥ कुमकुम चंदन चर्ने शरीर भवताप दहननाशन सुवीर | जे अन्य विरस गुरुकर चिभाव । जे अमर लहें शिव पुरी ठाव ॥ ५॥ उअन्चल अक्षत आगे धरे । अरिहन्तसिद्धिपुनि प्रनिमनेह ॥ जेनेवजनवविधिथारदेहि । मनवचनलफलकाया फरेहि ॥६॥ आतङ इन्द्रकरचलोशांति । मणिरत्नप्रदीपहि प्रज्वलांति ॥ तंधूपगरखेसुगन्ध । मय जयनरघरपट्टवन्ध ॥ ७ ॥ फलनालिकेलिजिनचढ़नयोग्य । करभावधरपुनलहैं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन- ग्रन्थ-संग्रह । भोग्य | वसुविधिपूजाकर चलोइन्द्र ! दुन्दुभीबार्जेसुरभयां नन्द ॥ ८ ॥ नरपुहिमिलायरंजामहेन्द्र । सब विधिले भक्ति करीसतेन्द्र | फेसोबहुनन्दनकरहिएव । किरपालभनेंजिनचर णसेव ॥ १ ॥ धन्ता । सम्यक्त्वगढ़ावे ज्ञान बढ़ावे विविधभांति स्तुति करऊ । जिनवर मनध्यावे शिव पद पावे भव समुद्रदुस्तरतिरक्ऊ । इत्याशीर्वादः । 1 ॥ इति धारें नयमाकलहित सम्पूर्णम् ॥ जन्मकल्याणक पूजा | दोहा दोष अठारह रहित प्रभु, सहित सुगुण क्ष्यालीस । तिन सब की पूजा करों, आय तिष्ट जगदीश ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदर्हत्परमेष्टिन् ! अत्र अवतर! अवतर ! संघौषट् । ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट् चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदईपरमेष्टिन् ! अत्र तिष्ट विष्ट । ठः ठः । . ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितं ष्ट्र त्वारिंशदंगुणसहित श्रीमदर्हत्परमेष्टन् ! अत्रममसन्निहिता भव भव । वषट् अष्टक । ( द्यानतरीयकृत नन्दीश्वर द्वोपाष्टक की चाल । ).. शुचिक्षीरउदधिक नीर, हाटक भृंग भरा । तुमपदपूजों गुणधीर, मेटो जन्मजरा ॥ हरि मेरुसुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें ।.. हम पूर्जे इन गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादावरहित षट् चत्वारिषद्गुणं सहित श्री Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - प्रन्थ-संग्रह | T मदईत्परमेष्टिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वशमीति स्वाहा ॥ १ ॥ केसर घनसार मिलाय, शीत सुगन्धधनी । जुगचरनन चच लाय, भव भातापहनी ॥ हरि मेरु सुर्दन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूजें इत गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट् चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदर्हत्परमेष्टिने संसारातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ भक्षत मोती उनहार, स्वेत सुगन्ध भरे । पाऊ अक्षयपद सार, ले तुम भेंट धरे ॥ हरि मेरुसुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूर्जे इतगुणगाय, मङ्गल मोद धरें ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्री मदर्हत्परमेष्टिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ वेल्हा जूही गुलाब, सुमन अनेक भरे । तुम 'भेंट घरों जिनराज, काम कलंक हरे ॥ हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूजें इतगुण गाय, मंगल मोद धरें ॥४॥ ॐ ह्रीं अष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदईत्परमेष्टिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । फेनी गोला पकवान, सुन्दर ले ताजे । तुम अग्र घरों गुण खान, रोग छुधाभाजे ॥ हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूर्जे इतः गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥ ५ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन-अन्ध-संग्रह। , . . ॐ ह्रीं अप्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्धगुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने सुधारोनपिनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा। कंचन मय दीपक वार, तुम आगे लाऊं। मम तिमिर मोह छैकार, केवल पढ़ पाऊ॥ - हरिमेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हान करें।. हम पूर्जे इत गुण गाय, मंगल मोद घरें ॥६॥ . ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कृष्णागर तर कपूर, चूर सुगन्ध करो। तुम आगे खेचत भूर, वसुविधःकर्म हरों । हरि मेरु सुदरशन जाय, जिनवर न्हान करें। हम पूर्जे इत्त गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥७॥ ॐ हीं अष्टादशदोपरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमहत्परमेष्टिनें अष्टकमदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । श्रीफल अंगूर अनार, खारक थार भरों।.. तुम चरन चढ़ाऊ सारं, तां फलं मुक्तिवरों।। . हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हान करें। हम पूर्फ इत गुण गाय, मंगल मोद धरें॥८॥ ॐ ह्रीं अष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिशगुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । जल आदिक माठं अदोष, तिनका अर्घ करों। . . . तुम पद पूजों गुण कोष, पूरन पद सुधरों.. . हरि मेरु सुदरशन जायं, जिनवर न्हान करें। . ... हम पूर्जे इत गुण गाय, वदरी मोद घरें॥६॥.. . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २७३ __ॐ ह्रीं अष्टादशदापरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदहत्परमेष्टिने अनपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। भारती। (जोगीरासा । ) जन्मसमय उच्छच करने को, इन्द्र शची युत धायो। तिहुँ को कछु घरणन करवेको, मेरो मन उगगायो। युधि जन मोकों दोपन दीजो, थारी बुद्धि भुलायो। साधू दोप क्षमे सब ही के. मेरो फरौ सहायौ ॥१॥ (छन्द कामिनी-मोहन मात्रा २० ।) जन्म जिनराज को जवहिं निज जानियों। इन्द्र धरनिंद्र सुर सकल अकुलानियों ।। देव देवाङ्गना चलिये जयकारतीं। शचियं सुरपति सहित करति जिन भारती ॥२॥ साजि गजराज हरि लक्ष जोजन तनो । वदन शत वदन प्रति दन्त वसु सोहना ॥ सजल भरिपुर सरतंत प्रति' धारतीं। शचियं सुरपति सहित, करति जिन भारती ॥३॥ सरहि सरपंच दुय एक कमलिनी बनी । तासु प्रति कमल पश्चीस शोमा धनी ॥ कमल दल एक सौ आठ विस्तारतीं। शचियं सुरपति सहित करत जिन आरती ॥४॥ दलहि दल अप्सरानाचहीं भावसों। करहिं सङ्गीत जयकार सुरचावल। तगड़दातगड़थेई करत पग धारतीं। शचियं सुरपति स० ॥५॥ तानु करि बैठि हरि सकल परिवारसों । देहि पर दक्षिणा जिनहि जयकारसों॥आनि कर शचियं जिननाथ उर धारतीं। शचियं सुरपति स०॥६॥ आन पांडक शिला पूर्व मुख थाप जिन । करहिं अभिषेक उच्छाह सो अधिक तिन ।। देखि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२. जैन-अन्य-संग्रह ! इन्द्र सुर सव साय कर आरति कसा ॥ इन्द्र सुर सव साज ले इहि भांत पूजा विस्तरौं।तेह॥५॥ दीप रतनन.जोत जामें नत्य कर आरति करौं। इन्द्र सुर सव साज ले इहि भांत पूजा विस्तरौं। तेक्व०॥६॥ धूप दशाङ्गी खेइये वसु कर्म भव भव के दहैं। .. इन्द्र सुर साज ले इह भांत पूजा विस्तरौं ॥ तेह०॥ ७॥ फलयुक्त ले भागे धरै प्रभू फल फले से अनसरों। इन्द्र सुर सव साज ले इहि भांत पूजा विस्तरौं। तेहूः॥८॥ वसु.द्रव्य ले एकत्र इह विधि अर्घ ले मङ्गल पढौं।.. ... इन्द्र सुर सव सव साज ले इहि भांत पूजा विस्तरोतेहगा अथ शान्तिपाठः पारभ्यते। .... (शान्तिपाठ बोलते समय दोनों हाथोंसे पुष्पवृष्टि करते रहना चाहिये ) ___दोधकवृत्तम् । शान्तिजिनं शशिनिर्मलवक्र शीलगुणवतसंयमपात्रम् । . अटशतार्जितलक्षणगानं नौमि जिनात्तममम्वुजनेत्रम् ॥१॥ पञ्चममीप्सितचक्रधराणां पूजितमिन्द्रनरेन्द्रगणैश्च । . . शान्तिकरं गणशान्तिममीपतुः-षोडशतीर्थकरं प्रणमामि ॥२॥ दिव्यतरु सुरपुष्पसुटिंदुन्दुभिरासनयोजनघोषौ। . . आतपवारणचामरयुग्मे.यस्य विभाति च मण्डलतेजः ॥३.. तं जगदर्चितशान्तिजिनेन्द्र शान्तिकर शिरसा प्रणमामि.... सर्वगणाय:तु यच्छतु-शान्तिं मह्यमरं पठते. परमां च ॥४॥ . अशोकक्षा सुरपुष्पवृष्टिर्दिष्यध्वनिश्शामरमासनं च ।। भामण्डलं.. ' दुन्दुमिरातपत्र समातिहायोणि- जिनेश्वराणाम् ॥ (यह श्लोक क्षेपक है, इसे बोलना न चाहिये।), . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैन-प्रन्थ-संग्रह। पद्मप्रभारुणमणिधु तिभासुराङ्ग त्व० ॥३॥ अर्हन् सुपाच। कदलीदल-वर्णगात्र प्रालेयतारगिरिमौक्तिकवर्णगौर चन्द्रप्रभस्फटिकपाण्डुरपुष्पदंत त्व०॥४॥ सन्तप्तकाञ्चनरुचे जिन शीतलाख्यश्रेयान्विनष्टदुरिताष्टकलङ्कपडू बन्धूकबन्धुररुचे जि:नवासुपूज्य त्व०॥५॥ उदएडदर्पकरिपो विमलामलाङ्गस्थेमन्ननन्तजिदनन्तसुखाम्बुराशे । दुष्कर्मकल्मपविवर्जित धर्मनाथ त्व०॥६॥ देवामरीकुसुमसन्निभशान्तिनाथ' कुन्यो 'दया गुणविभूषणभूषिताङ्गा देवाधिदेव भगवनरतीर्थनाथ त्व० यन्मोहमल्लमदभजनमल्लिनाथ.क्षेमकरावितथशासनसुव्रताख्य। यत्सम्पदा प्रशमितो नमिनामधेय त्व०॥८॥तापिच्छंगुच्छरुचिरोज्ज्लल नेमिनाथ घोरोपसर्गविजयन् जिनपार्श्वना स्याद्वादसूकिमणिदर्पणवर्द्धमान त्वः ॥६॥ प्रालेयनीलहरितारुणपीतभासं यन्मूर्तिमन्यसुयरवावस मुनीन्द्राः ध्यायन्ति सप्ततिशत जिनवल्लभानां :त्व०॥ १० ॥ सुप्रभात सुनक्षत्र माङ्गल्यं परिकीर्तितम् । चतुर्विशतितीर्थानां सुप्रभात दिने दिने ॥ ११॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं श्रेयःप्रत्यभिनन्दितम् । देवता ऋष्यः सिद्धाः सुप्रभात दिने दिने ॥ १२॥ सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थ भन्यसत्व सुखावहम् ॥ १३ ॥ सुप्रभातं जिनेन्द्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषाम् । मला. नतिमिरान्धानाम् नित्यमस्तमितो रविः॥ १४ ॥ सुभातं जिने न्द्रस्य वीरः कमललोचनः । येन काटवी दग्धा शुक्लध्याना-. प्रवहिना ॥ १५ ॥ सुप्रभातं सुनक्षत्र सुकल्याण सुमङ्गलम् । त्रैलोक्यहितकतणां जिनानामेव शासनम् ॥ १६॥ .... .. .. इति सुप्रभातस्तोत्रं समाप्तं ।। . . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૮ जैन - ग्रन्थ- संग्रह | अद्याष्टकस्तोत्रम् । अद्य मे सफलं जन्म नेत्रे च सफले मम । त्वामद्राक्षंयतो देव हेतुमक्षय सम्पदः ॥ १ ॥ भद्य संसारगम्भीरपारावारःसुदुस्तरः । सुतरोऽयं क्षणेनैव जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ २ ॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नैत्रे च विमले कृते । स्नाताहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ३ ॥ अद्य मे सफलं जन्म प्रशस्तं सर्वमंगलम् । संसारार्णवतीर्णोहं जिनेन्द्र तब दर्शनात् ॥ ४ ॥ अद्य कर्माष्टकज्वालं विघूर्त सकषायकम् । दुर्गतेर्विनिवृत्तोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ५ ॥ अद्य सौम्या ग्रहाः सर्वे शुभाश्रचकादशस्थिताः । नष्टानि विघ्नजालानि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ६ ॥ अद्य नष्टो महाबन्धः कर्मणां दुःखदायकः । सुखस समापन्नो जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ७ ॥ अद्यकर्माष्टकं नष्ट दुःखोत्पादनकारकम् । सुखाम्भोधिनिमग्नोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ८ ॥ अद्य मिथ्यान्धकारस्य हन्ता ज्ञानदिवाकरः । उदिता मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ६ ॥ अद्याहं सुकृती भूतो निर्धूताशेष कल्मषः । भुवनेत्रयपूज्योऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनातू ॥ १० ॥ भद्याष्टकं पठेद्यस्तु गुणानन्दितमानसः । तस्यसर्वार्थसंसिद्धिर्जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ११ ॥ • इति श्रद्याष्टकं स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥' . सूतकनिर्णय । सुतक में देव शास्त्र गुरुका पूजन प्रक्षालादि तथा मन्दिरजीका वस्त्राभूषणादिको स्पर्शनकी मना है तथा पान दान भी वर्जित है ॥ सुतक पूर्ण होने के बाद प्रथम दिन पूजन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- प्रन्थ-संग्रह | ३०१ विनती, भूधर दास कृत । अहे जगति गुरु एक सुनिये अर्ज हमारी । तुम प्रभु दीन दयालु मैं दुखिया संखारी ॥१॥ इस भव वन के मांहि काल अनादि गमाया । भ्रमत चतुर्गति मांहि सुख नहीं दुख बहु पायो ||२|| फर्म महा रिपु जोर ये कलकान करें जी | मन माने दुख देय काहू से नहिं डरें जी ॥३॥ कव हूँ इतर निग़ोद कब हूँ कि नर्क दिखावें । सुर नर पशुगति मांहि बहु विधि नाच नचायें ||४|| प्रभु इनको परसङ्ग भव भव मांहि बुरो जी। जो दुख देखा देव तुम से नाहिं दुरो जी ||५|| एक जन्म की बात कहि न सकों सब स्वमी । तुम अनन्त पर्याय जानत अन्तर्यामी ॥ मैं तो एक अनाथ ये मिल दुष्ट घनेरे । किया बहुत वेहाल सुनिये साहब मेरे ||७|| ज्ञान महानिधि लूट रंक निवल कर डारो । इन ही मो तुम मांहि है प्रभु अन्तर पारो ॥८॥ पाप पुण्य मिल दोय पायन बेरी डारो तन कारागृहं मांहि मंद दियो दुख भारी ॥६॥ इनको नेक विगार मैं कुछ नाहि करी जी । यिन कारण जगवन्धु बहुविधि पैर घरो जी ॥१०॥ अब आयो तुम पास सुन कर सुयश तुम्हारो । नीत निपुण महाराज कीजे न्याय हमारो ॥११॥ दुष्टन देहु निकाल साधुन को रख लीजे | विनवे भूधर दास हे प्रभु ढील न कीजे ॥१२॥ 1 इति । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। वाह्याभ्यन्तर संग त्याग जिन मुद्राधार भये अविकारी। ज्ञानानन्द स्वरूप मगननित तिन जिन पथ का होहु विहारी उत्तम ब्रह्मचर्य। पर वनिना तजो बुधिवान युगम भव दुख देन हारी प्रगट लखहु सुजान । टेक कुगति वहन सु सकल गुण गण गहन दहन समान। . सुयश शशि को मेघमाला सर्व भोगन वान ॥१॥ एक छिन पर दार रति सुख काज करत महान । फरत अति सफल नरक दुख सहत जलधन मान ॥२॥ अन्य रामा दीप में है सुलभ परत मजान । यहाँ ही दण्डादि भोगत पुन कुगति दुखदान ॥३॥. स्वदारा विन नारि जननी सुता भगिनी मान। करहि वांछा स्वप्न मैं नहिं धन्य पुरुष प्रधान ॥ ४॥ परबधू मन वचन तेंतज शील धर अमलान । स्वर्ग सुख लह पुन विहारी होहि अवंचल थान ॥५॥ जिन वाणी की स्तुति। . करों भक्ति तेरी हरा दुख माता भ्रमण काटेक अकेला ही हूँ मैं कर्म सब आये सिमटके। लिया है मैं तेरा शरण अब माता सटक के॥१॥ समावत है मोकों कर्म दुख देता जनम का करो०॥३॥ दुःखी हुमा भारी भ्रमत फिरता जगत में। सहा जाता नाही अकल घबड़ाई भमणं में .. करों क्या मा मेरी चलत बस नाहीं मिटन का ।। करों ॥२॥ सुनो माता मेरी, अरज करताहूँ दरद में।. . . . . . . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 308 जैन-मन्य-संग्रह / करना हमें माज क्या क्या है यह विचार निज काज करें। कार्यिक शुद्धि क्रिया करके फिर लिन दर्शन स्वाध्याय करें। मौन धार कर तोपित मनले सधा वेदना, उपशम हित.। विघ्न कर्म के क्षयोपशम से भोजन प्राप्त करें परमिता है जिन हो हितकर यह भोजन तन मन हमरे स्वस्थ रहें। आलस तजकर "दीप" उमंग से निज परहित में मगन रहें। सांझ के भोजन समय की इष्ट प्रार्थना। जय श्री महावीर प्रभु की कह अरु निज कर्तव्य पूरण कर। संध्या प्रथम मौन धारण कर भोजन करें शांत मन कर / / परमित भोजन करें ताकि नहिं मालस अरु दु:स्वप्न दिखें। "दीप" समय पर प्रभू सुमरण कर लो जगे सुकार्य लखें / कुगुरु, कुदेव कुशास्त्र की भक्ति का फल / अन्तर वाहर अन्य नहि, ज्ञान ध्यान तप लीन / सुगुरु विन कुगुरु नमें, पड़े नर्क हो दीन // 1 // दोष रहित सर्वज्ञ प्रभु, हित उपदेशी नाय नाया श्री अरहंत सुदेच, तिनको नमिये माय // 2 // राग द्वेप मल कर दुखी, हैं कुदेव जग रूप। तिनकी वन्दन जो करें, पडै नर्क भव कप // 3 // मात्म मानं वैराग सुख, दया. छमा सत शील! भाव नित्य उजल करें, है सुशान भव कील // 4 // राग देश इन्द्रों विषय, प्रेरक सर्व शास्त्र / तिनको जो वन्दन करें, लहै नर्क विट गात्र 5 //