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________________ २७२ जैन-अन्ध-संग्रह। , . . ॐ ह्रीं अप्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्धगुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने सुधारोनपिनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा। कंचन मय दीपक वार, तुम आगे लाऊं। मम तिमिर मोह छैकार, केवल पढ़ पाऊ॥ - हरिमेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हान करें।. हम पूर्जे इत गुण गाय, मंगल मोद घरें ॥६॥ . ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कृष्णागर तर कपूर, चूर सुगन्ध करो। तुम आगे खेचत भूर, वसुविधःकर्म हरों । हरि मेरु सुदरशन जाय, जिनवर न्हान करें। हम पूर्जे इत्त गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥७॥ ॐ हीं अष्टादशदोपरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमहत्परमेष्टिनें अष्टकमदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । श्रीफल अंगूर अनार, खारक थार भरों।.. तुम चरन चढ़ाऊ सारं, तां फलं मुक्तिवरों।। . हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हान करें। हम पूर्फ इत गुण गाय, मंगल मोद धरें॥८॥ ॐ ह्रीं अष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिशगुणसहित श्रीमदहत्परमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । जल आदिक माठं अदोष, तिनका अर्घ करों। . . . तुम पद पूजों गुण कोष, पूरन पद सुधरों.. . हरि मेरु सुदरशन जायं, जिनवर न्हान करें। . ... हम पूर्जे इत गुण गाय, वदरी मोद घरें॥६॥.. .
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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