SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २७३ __ॐ ह्रीं अष्टादशदापरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदहत्परमेष्टिने अनपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। भारती। (जोगीरासा । ) जन्मसमय उच्छच करने को, इन्द्र शची युत धायो। तिहुँ को कछु घरणन करवेको, मेरो मन उगगायो। युधि जन मोकों दोपन दीजो, थारी बुद्धि भुलायो। साधू दोप क्षमे सब ही के. मेरो फरौ सहायौ ॥१॥ (छन्द कामिनी-मोहन मात्रा २० ।) जन्म जिनराज को जवहिं निज जानियों। इन्द्र धरनिंद्र सुर सकल अकुलानियों ।। देव देवाङ्गना चलिये जयकारतीं। शचियं सुरपति सहित करति जिन भारती ॥२॥ साजि गजराज हरि लक्ष जोजन तनो । वदन शत वदन प्रति दन्त वसु सोहना ॥ सजल भरिपुर सरतंत प्रति' धारतीं। शचियं सुरपति सहित, करति जिन भारती ॥३॥ सरहि सरपंच दुय एक कमलिनी बनी । तासु प्रति कमल पश्चीस शोमा धनी ॥ कमल दल एक सौ आठ विस्तारतीं। शचियं सुरपति सहित करत जिन आरती ॥४॥ दलहि दल अप्सरानाचहीं भावसों। करहिं सङ्गीत जयकार सुरचावल। तगड़दातगड़थेई करत पग धारतीं। शचियं सुरपति स० ॥५॥ तानु करि बैठि हरि सकल परिवारसों । देहि पर दक्षिणा जिनहि जयकारसों॥आनि कर शचियं जिननाथ उर धारतीं। शचियं सुरपति स०॥६॥ आन पांडक शिला पूर्व मुख थाप जिन । करहिं अभिषेक उच्छाह सो अधिक तिन ।। देखि
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy