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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
: इहभाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मचू अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं |
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दोहा - वसुविधि अर्ध सँजायके, अति उछाह मन कीन । जासों पूजौं परम पद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥६॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनघ पद प्राप्ताये अर्धं निर्वपामिति स्वाहा ॥६॥
अथ जयमाला ।
देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहूं आरती, भल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥
पड़ि छन्द |
चकर्मकि त्रेसठ प्रकृति नाशि। जीते अष्टादशदोषराशि जे परम सगुण हैं अनन्त धीर । कहवत के छयालिस गुण गंभीर ॥ २ ॥
शुभसमवसरण शोभा अदार । शत इन्द्र नमत कर सीस धार। देवादिदेव अरहन्तं देव । वन्दो मनवचतनकरि सुसेव ॥३॥
जिंन की धुनि है ओंकाररूप । निर अक्षरमय महिमा अनूपं । दश- अष्ट महाभाषा समेत । लघुभांषा सात शतक सुचेत ॥ ४ ॥
सो. स्याद्वादमय सप्तभंग । गणधर गूंथे बारहसुअंग रवि शशि न हरै सो तम हराय । सो शास्त्र नमोबहु प्रीति व्याय ॥ ५ ॥