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जैन-ग्रन्थ-संग्रह |
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वतिसहस्रचतुःशतैकशीतिअकृत्रिम जिन चैत्यालयेभ्यः पूर्णार्थं
निर्वपामि ॥ ४ ॥
अथ जयमाला |
दोहा ।
ra चरणों जयमालिका, सुना भव्य त्रित लाय । जिनमन्दिर तिहुँ लोकके, देहुँ सकळ दरसाय ॥ १ ॥ पद्धढ़िबंद |
जय अमल अनादि अनन्त जान । अनिमित जु अफीतम अचल मान | जय अजय अखण्ड अरूपवार | पर द्रव्य नहीं दीसें लगार ॥ २ ॥
जय निराकार अधिकार होय । राजत अनन्तपरदेश सोय । जय शुद्ध सुगुण अवगाहपाय | दशदिशामांहि इहविधि लखाय ॥ ३ ॥
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यह भेद अलोकाकाश जान । तामध्य लोक नभ तीन मान ॥ स्वयमेव बन्यो अविचल अनंत । अविनाशि अनादिजु कहत संत ॥ ४ ॥ पुरुषाकार ठाड़ो निहार । कटि हाथ धारि है पग पसार ॥ दच्छिन उत्तरदिशि सर्व ठौर राजू जुसात भाख्यो निचोर ॥५॥ जय पूर्व अपर दिशि घाटवाधि। सुन कथन कहूँ ताको जुसाधि ॥ लखि श्वभूतलें राजू जु सात । मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥ फिर ब्रासुरग राजु जु पांच भू सिद्ध एफ राजू जु सांच ॥ दश चार ऊंच राजु गिनाय । पटद्रव्य लये चतुकोण पाय ॥७॥ तसु वातवलय लपटाय तीन । इह निराधार लखियो प्रवीन ॥
नाड़ी तामधि जान खास । चतुकोन एक राजू जु व्यास ॥८॥ राजू उतंग चौदह प्रमान । लखि स्वयंसिद्ध रचना महान ॥