Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 63
________________ जैन - प्रन्थ-संग्रह | T मदईत्परमेष्टिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वशमीति स्वाहा ॥ १ ॥ केसर घनसार मिलाय, शीत सुगन्धधनी । जुगचरनन चच लाय, भव भातापहनी ॥ हरि मेरु सुर्दन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूजें इत गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट् चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदर्हत्परमेष्टिने संसारातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ भक्षत मोती उनहार, स्वेत सुगन्ध भरे । पाऊ अक्षयपद सार, ले तुम भेंट धरे ॥ हरि मेरुसुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूर्जे इतगुणगाय, मङ्गल मोद धरें ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्री मदर्हत्परमेष्टिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ वेल्हा जूही गुलाब, सुमन अनेक भरे । तुम 'भेंट घरों जिनराज, काम कलंक हरे ॥ हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूजें इतगुण गाय, मंगल मोद धरें ॥४॥ ॐ ह्रीं अष्टादश दोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदईत्परमेष्टिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । फेनी गोला पकवान, सुन्दर ले ताजे । तुम अग्र घरों गुण खान, रोग छुधाभाजे ॥ हरि मेरु सुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें । हम पूर्जे इतः गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥ ५ ॥

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