Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 24
________________ जैन - प्रन्य संग्रह ! यो तन से इस क्षेत्र संबंधी, कारण मान बनी है। खानपान दे याको पोपो, अब समभाव उनेा है ॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान विन, यह तन अपना जाना ॥ इंद्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछाने! ॥ तन विनशनते नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई । कुटुम आदिको अपना जाना, मूठ अनादी छाई ॥ २० ॥ अब निज भेद यथारथ मा. मैं हूं ज्योतिस्वरूपो । उपजे विनशे लो यह पुद्गल, जानो याको रूपी इष्टनिष्ट जेते सुब्दुल हैं, सो सब पुद्गल सागे । मैं जब अपना रूप विचारी, तव वे सब दुख माने विन समता तन नन्त घरे मैं, तिनमें ये दुख पायो । शतावर्ते नन्व वार मर, नाना योनि भ्रमायो चार मन्तही अग्निमाहिं जर, सूवो सुमति न लायो । सिंह व्याघ्र अहि नन्तवार सुझ, नाना दुःख दिखायो १२२ ॥ विन समाधि ये दुःख लहे मैं, अव उर समता माई। मृत्युराजको भय नहि मानो देवै तन सुख दाई यात जवलग मृत्यु न सांचे, तदलग जप तप कीजै । जप तप दिन इस जयके माहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥ स्वर्ग संपदा तपसे पावे, तपसे कर्म नशावे 1. तपहीसे शिवकामिनिपति है, यासे तप वितं लावे | . जब मैं जानी समता दिन मुझ, कोऊ नाहि सह ॥ मात पिता सुत्र बान्धवं तिरिया ये सब हैं दुखदाई२४॥ मृत्यु समयनें मोह करें ये, ता भारत हो है ! आरत वै गति नीवी पावे, यों उस मोह तनों है । और परिग्रह जेते जगमें, तिनसे प्रीति न कीजे परमषमें ये संग म चालें नाहक भारत कीजे ॥

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