Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 30
________________ ५२ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। - मिथ्यावादी दुष्ट, लोमऽहंकार भरे हैं। .. सवको छिनमें जीत, जैनके मेर. खरे हैं : फल अति उत्तमलों जजों (हों), वांछितफलदातार सीमा ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलंनिर्व० जल फल आठों दर्ष, अरघ कर प्रीत धरी है। गणधर इंद्रनिहते, श्रुति पूरी न करी है। 'धानत' सेवक नानके हो), जगते लेहु निकार। सीमा * ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽनपदप्राप्तये मध्यं निर्व० अथ जयमाला भारती। सोरठा । ज्ञानसुधाकर चंद, भविकखेतहित मेघ हो। भ्रमतममान अमंद, तीर्थंकर चीसों नमों॥ १॥. . . . .. चौपाई। . . . :सीमंधर सीमंधर स्वामी । सुगमंधर सुगमंधर नामी। बाहु वाहु जिन जगजन तारे। करम सुवाहु वाहुबल दारे २॥ जोत सुजाव केवलज्ञानं । स्वयंप्रभू प्रमुस्वयं प्रधान। अपमानन ऋषि भानन दोष । अनंत वीरज चीरजकोर्ष ॥३॥

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