Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 35
________________ जैन-प्रन्थ-संग्रहः। १७ । . पार उतारन जान, 'धानत' पूजौं व्रतसहित ॥१०॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्लत्रयाय पूर्णाध्यं निर्वपामि ॥१०॥ . दर्शनपूजा। दोहा-सिद्ध अष्टगुनमय प्रगट, मुक्तजीवसोपान । जिहविन ज्ञानचरित अफल, सम्यकदर्श प्रधान ॥१॥ ॐ ह्रौं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । । ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन ! अत्र मम सन्निहितं भव भव । वषट् । सोरठा । . नीर सुगन्ध अपार, त्रिपा हरै मल छय करै। सम्यकदर्शनसार, आठ अङ्ग पूजों सदा ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जल केसर घनसार, ताप हर सोतल करे। सम्यकदं० ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ अछत अनूप निहार, दारिद नाश सुख भरै। सम्यकद० ॥३॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥३॥ पहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करै । सम्यकद ॥४॥ ॐहीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ नेवंज विविध प्रकार, छुधा हरे धिरता करे। सम्यकद०॥५॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ दीपज्योति तमहार, घटपट परकाशै महा । सम्यकद०॥६॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्सम्यग्दर्शनाय दीपं निर्वपामोति स्वाहा ॥६॥ धूप घानसुखकार, रोग विधन जड़ता हरे। सम्यकद०॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टाङ्सम्यग्दर्शनाय धूपं निर्वपामीति. स्वाहा ॥७॥ श्रीफलमादि विथार, निहचै सुरशिवफल करे। सम्यकद० ॥८॥

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