Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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१६२
जैन - प्रन्थ- संग्रह।
जनमजरामृतु दोष मिटावे । जो सम्यंकरतनत्र्यं ध्यावे ||३|| सोइ दशलक्षन को साधै। सो सोलहकारण भराधे ॥ सो परमातम पद उपजावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ||४|| सोई शक्रचक्रिपद लेई । तोनलोकके सुख विलसेई ॥ सोरागादिक भाव वहावे । जा सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥५॥ सोई लोकालोक निहारे । परमानंददशा बिसतारै ॥ आप तिरे औरन तिरवावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥६॥ दोहा ।
एकस्वरूपप्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय । तीनभेद व्योहार सब द्यानतको सुखदाय ||७|| ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( अर्घ्य के बाद विसर्जन करना चाहिये )
न्यामतकृत गजल ।
तुम्हारे दर्श बिन स्वामी मुझे नहिं चैन पड़ती है । छची वैराग्य तेरी सामने आंखों के फिरती है ॥ टेक ॥ निरा भूषण विगत दूषण परम आसन मधुर भाषण । नजर नैनोंको नाशाकी अनोसे पर गुजरती है ॥१॥ नहीं करमोंका डर हमको कि जब लग ध्यान चरणों में । तेरे दर्शनसे सुनते कर्म रेखा भी बदलती है ||२|| मिले गर स्वर्गकी संपति, अचंभा कौनसा इसमें तुम्हें जो नयन भर देखे गती दुरगतिकी टरती है ॥३॥ हजारों मूरते हमने बहुत सी गौर कर देखों शांति सूरत तुम्हारी सी नहीं नजरों में चढ़ती है ||४|| जगत सरताज हो जिनराज, न्यामतको दरश: दीजे, तुम्हारा क्या बिगड़ता है, मेरी बिगड़ी सुधरती है ||५||

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