Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 38
________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। तपरीति गहि बहु मान देके, विनयगुन चित लाइये। ए आठभेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पन देखना। इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पटपेखना ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा॥२॥ चारित्रपूजा । दोहा । विषयरोगऔषध महा, दवकषायजलधार । तीर्थकर जाकौं धरै, सम्यकचारितसार ॥१॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र अवतर अबतर संवौषट् । ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ । ___ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र ममं सनिहित भव भव । वषट् सोरठा। नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरै मल छय करे। सम्यकचारित धार, तेरहविध पूजौं सदा ॥२॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निर्वपामीति० जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करै । सम्यकचा० ॥२॥ . ॐ ह्रौं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय चंदनं निर्वपामीति • अक्षत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै सम्यकचा० ॥३॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविघसम्यक्चारित्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा पहुपसुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करे। सम्यक० ॥४॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशधिसम्यक्नारित्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करै । सम्यक० ॥५॥ . ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नैवेद्य निर्वपामीतिक

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