Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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२०६
जैन-प्रन्ध-संग्रह।
जिनेन्द्रभगवन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ । 3.31+
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपटचत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवन अन मम सन्निहितो भव भव ! वपट् ।।
छंद त्रिभंगी। बहु तृषा सतायो, अति दुख पायो, तुमपै आयो जल लायो। उत्तम गंगा जल, शुचि अति शीतल, प्राशुक निर्मल, गुन गायो। प्रभु अंतरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी दोप हरो। यह अरज सुनील, ढील न कीजै, न्याय करीजै, दया धरो ॥१॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोपरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवद्भ्यो जन्माजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ अघतपत नरिंतर, अगनिपटंतर, मो उर अंतर, खेद कर्यो। लै वावन चंदन, दाहनिकंदन, तुमपदचंदन, हरष धर्यो॥प्रभु०॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोपरहितपट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्यो भवतापनाशाय चन्दनं ॥ २॥
औगुन दुखदाता, कहयो न जाता, मोहि असाता, बहुत करें। दंदुल गुनमंडित,अमल अखंडित,पजत पंडित,प्रीति धरौप्रभु०
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशसद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योअक्षयपदप्रातये अक्षतान निर्यपामीति ॥ ३॥ सुरनर पशु को दल, काममहावल, वात कहत छल, मोह लिया। ताके शरलाऊंफूल चढ़ाऊँ, भगति बढ़ाऊं,खोल दिया। प्रभु०
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योकामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामि ॥ ४॥
+ 3: : इति वृहद्ध्वनौ । वदिति देवद्विदेश्यकहविल्यागे।
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हविल्यागे।
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