Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 44
________________ २०४ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। तामध्य जीव त्रस आदि देय । निज थान पाय तिष्ठे भलेया॥ लखि अधोभागमें शुभ्रथान । गिन सात कहे आगम प्रमान ॥ षटथानमाहि नारकि बसेय । इक शुभ्रभाग फिर तीन भेय ॥१०॥ तसु अधोभाग नारकि रहाय पुनि ऊईभाग द्वव थान पाय॥ बस रहे भवन व्यंतरजु देव । पुर हयं छजै रचना स्वमेव॥१॥ तिह थान गेह जिनराज भाख । गिन सातकोटि बहतरजुझाव॥ ते भवन नमों मनवचनकाय । गतिशुभ्रहरनहारे लखाय ॥१२॥ पुनि मध्यलोक गोलाकार । लखि दीप उदधिरचना विचार॥ गिन असंख्यात भाख जुसंत । लखिशंभुरमन सबके जुअंत॥१३॥ इक राजुव्यास में सर्व जान । मधिलोकतनों इह कथन मान ॥ सबमध्य दीप जंवू गिनेय । त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥१४॥ इन तेरहमें जिमधाम जान । सतचार अठावन हैं प्रमान । खग देव असुर नर आय आय । पद पूज जाय शिर नाय ॥१५॥ जय उर्द्धलोकसुरकल्पवास । तिहँ थान छजे जिनभवन खास ॥ जय लाखचुरासीपलखेय । जय सहस सत्याणव और ठेया॥ जय बीसतीन फुनि जोड़ देय । जिनभवन अकोतम जान लेय ॥ प्रतिभवन एक रचना कहाय । जिनषिव एकसत आठ पाय॥१७॥ शतपंच धनुष उन्नत लसाय । पदमासनजुत वर ध्यान लाय॥ शिरतीनछत्रशोभितविशालत्रय पादपीठ मणिजडितलाल॥१८ भामंडलकी छवि कौन गाय । फुनि चवर दुरत चौसठ लखाय॥ . जय इंदुभिरव अदभुत सुनाय । जयपुष्पवृष्टि गंधोदकाय ॥१६॥ जय तमअशोक शोभा भलेय । मंगल विभूति राजत अमेय ॥ बटतूप बजे मणिपाल पाय । घटधूपधून दिग सर्व छाय ॥२०॥ जय केतुपंक्ति सोहै महान । गंधर्वदेव गुन करत गान ॥ मुर जनम लेत लखि अवधि पाय । तिस थान प्रथम पूजन कराय ॥२१॥

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