Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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२०८
जैन-प्रन्थ-संग्रह।
चौपाई (१६ मात्रा) एकं ज्ञान केवल जिन स्वामी । दो आगम अध्यातम नामी॥ तीन काल विधि परगट जानी। चार अनन्तचतुष्टय ज्ञानी ॥२॥ पंच परावर्तन परकासी। छहों दरवगुनपरंजयमासी । सातभंगवानी परकाशक | आठों कर्म महारिपुनाशक ॥ ३ ॥ नव तत्त्वनकै भावनहारे । दश लच्छनसौं भविजन तारे। ग्यारह प्रतिमा के उपदेशी । बारह सभा सुखी अकलेशी ॥४॥ तेरहविधि चारित के दाता | चौदह मारगना के ज्ञाता ॥ पंद्रह भेद प्रमादनिवारी । सोलह भावन फल अधिकारी ॥॥ तारे सत्रह अंक भरत भुव । ठार थान दान दाता तुव ।। भाव उनीस नुकहे प्रथम गुन । वीस अंकगणधरजीकी धुन॥६॥ इकइस सर्व घातविधि जाने । बाइस बध नवम गुन थाने । तेइस निधि अरु रतन नरेश्वर सोपूजै चौवीस जिनेश्वर ॥७॥ नाश पचीस काय करी हैं। देशघाति छब्बीस हरी हैं। तत्त्व दरब सत्ताइस देखे । मति विज्ञान अठाइस पेखे ॥॥ उनतिस अंक मनुष सब जाने । तीस कुलाचल सर्व बखाने । इकतिस पटल सुधर्म निहारे । बत्तिस दोष समाइकटारे ॥॥ तेतिस सागर सुखकर आये। चोतिस भेद अलब्धि बताये। पैंतिस मच्छर जप सुखदाई । छत्तिस कारन-रीति मिटाई॥०॥ सैंतिस मग कहि ग्यारह गुनमें । अठतिस पद लहि नरक भपुनमें उनतालीस उदीरन तेरम । चालिस भवन इंद्र पूजें नम ॥१६॥ इकतालीस भेद आराधन । उदै वियालिस तीर्थंकर भन ॥ तेतालीस बंध ज्ञाता नहिं ! द्वार चवालिस नर चौथेमहि॥१२॥ पैतालीस पल्य के अच्छर । छियालीस बिन दोष मुनीश्वर ॥ नरक उदैन छियालील मुनिधुन । प्रकृति छियालीस नाश
दशम गुन ॥ १३॥

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